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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-3-2-8 (122) 253 तथा मोक्षमार्ग अनन्यसेवी अर्थात् मोक्षमार्ग का हि आसेवन करनेवाला वह मुनी कीसी भी प्राणी का वध न करे, अन्य के द्वारा प्राणी-वध न करवावे, तथा प्राणीवध करनेवाले अन्य की अनुमोदना न करे... तथा चतुर्थ महाव्रत की सिद्धि के लिये उपदेश देते हैं कि- विषय भोग से होनेवाले वैषयिक प्रमोद-हर्ष को अच्छा न माने, किंतु जुगुप्सा करे, तथा स्त्रीओंके प्रति राग न करे... किंतु ऐसा विचार करे कि- यह विषयभोग किंपाक (विष) वृक्ष के फल के उपभोग के समान है, अतः स्त्रीओं के भोगोपभोग के लिये परिग्रह के आग्रह से पराङ्मुख रहे... अर्थात् उत्तम-धर्म के पालन के लिये मिथ्यात्व, अविरति आदि का त्याग करके सम्यग्दर्शनज्ञान एवं चारित्रवाला होकर स्त्रीओं से होनेवाले वैषयिक प्रमोद-हर्ष की जुगुप्सा करे... तथा अनवमदर्शी याने उत्तम धर्म को देखनेवाला वह मुनी पापो के कारणभूत पापकर्मो से या पापाचरण स्वरूप कार्यों से निवृत्त हो... v सूत्रसार : मनुष्य चलते-चलते गिरता भी है और उठता भी है। ऐसा नहीं है कि- जो गिर गया वह गिरने के बाद कभी उठता ही नहीं है। यही स्थिति आध्यात्मिक जीवन की है। हिंसा आदि दोषों में प्रवृत्त आत्मा पतन के गर्त में गिरती जाती है। परन्तु अपने आप को संभालने के बाद वह पतन के गर्त से बाहिर निकल कर विकास के पथ की ओर बढ़ सकती है; अपना उत्थान कर सकती है। सिद्धत्व को भी प्राप्त कर सकती है। बस; आवश्यकता इस बात की है कि- वह दोषों को दोष समझकर उनका परित्याग कर दे, अपने मन, वचन एवं शरीर को से हटा ले। इस प्रकार विचार एवं आचार में परिवर्तन होते ही जीवन बदल जाता है, मनुष्य पापी से धर्मात्मा बन जाता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि- पापी से नहीं पापों से घृणा * करनी चाहिए और पापों का ही तिरस्कार करना चाहिए। क्योंकि- आज जो पापी है, आने वाले दिनों में धर्मात्मा भी बन सकता है। इसलिए बुरे एवं अच्छे का आधार व्यक्ति नहीं, आचरण है। प्रस्तुत सूत्र में भी यह बताया गया है कि- कई लोग लोभ वश पाप कर्म में प्रवृत्त * होते हैं, दोषों का आसेवन करते हैं, परन्तु उसी जीवन में जागृत होकर जब उनका परित्याग करते हैं तब फिर उन परित्यक्त भोगों एवं दोषों की ओर घूमकर देखते भी नहीं। क्योंकिवे उनके वास्तविक स्वरूप से परिचित हो चुके हैं। उन्होंने यह जान लिया है कि- ये भोगविलास दुःख के कारण हैं और अस्थायी हैं। यहां तक कि- देवों के भोग विलास भी स्थायी नहीं हैं। वे देव भी मृत्यु की चपेट में आकर अपनी स्थिति से गिर जाते हैं। .. इससे स्पष्ट हो जाता है कि- वैषयिक भोग स्थिर नहीं है। ऐश्वर्य एवं भोगों की दृष्टि से देव यद्यपि मनुष्य से अधिक संपन्न है। सामान्य देवों की भौतिक सम्पत्ति के समक्ष चक्रवर्ती
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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