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________________ 252 1 -3-2-8 (122) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - नाणुजाणइ, निव्विंद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी निसण्णे पावेहिं कम्मेहिं // 122 // II संस्कृत-छाया : आसेव्य एतद् अर्थं इति एव एके समुत्थिताः, तस्मात् तं द्वितीयं न आसेवेत, निःसारं दृष्ट्वा ज्ञानी, उपपातं च्यवनं ज्ञात्वा, अनन्यं चर माहण = मुनिः। स: न क्षणुयात्, न अपि अपरं घातयेत्, घातयन्तं वा न समनुजानीयात्। निर्विन्दस्व नन्दी, अरक्तः प्रजासु, अनवमदर्शी निषण्णः पापेभ्यः कर्मभ्यः // 122 // III सूत्रार्थ : यहां पूर्व के सूत्र में कहे गये कार्यों को करके कोइक भरत चक्रवर्ती जैसे लोग मुक्त होते हैं... इसलिये दुबारा असंयम न सेवें... संसार को निःसार देखकर ज्ञानी मुनी जन्म एवं मरण को जानकर मोक्षमार्ग में हि विचरे... वह न किसी का वध करे, न तो अन्य के द्वारा वध करावे तथा वध करनेवाले अन्य की अनुमोदना भी न करे... तथा कामभोग विषय से होनेवाले हर्ष में निर्वेद पाएं, स्त्रीजनों में आसक्त न रहें, तथा अहीनदी वह मुनी पाप-कर्मो से निवृत्त हो // 122 // IV टीका-अनुवाद : इस प्रकार पूर्वोक्त धन एवं उसके लिये अन्य जीवों का वध, परित्राप एवं परिग्रह आदि का सेवन करके लोभ-इच्छा की पूर्णता करके कितनेक भरत-चक्रवर्ती आदि मन-वचन एवं काया के अच्छे योग से संयमानुष्ठान में रहकर उसी हि जन्म में सिद्ध होते हैं अर्थात् संयमानुष्ठान से आत्मा को अप्रमत्त बनाकर कामभोग एवं हिंसादि आश्रवों के द्वारों का त्याग करने के बाद कभी अशुभ कर्मो के उदय से भोगोपभोग की इच्छा हो तो भी मृषावाद अथवा असंयम का सेवन न करें... क्योंकि- विषय भोग के लिये हि प्राणी असंयम करता है... किंतु वे शब्दादि विषय निःसार हि है... सार उसे कहते हैं कि- जिस विषय के आसेवन से तृप्ति हो... परंतु विषयभोगों के उपभोग से प्राणी को कभी भी तृप्ति नहि होती है, इसलिये विषयभोग नि:सार है... उन विषयभोगों को नि:सार देखकर तत्त्वज्ञ ज्ञानी मुनी कभी भी विषयों की अभिलाषा न करे... मात्र मनुष्यो को हि नहि, किंतु देवों के भी विषयभोग अनित्य हि है तथा जीवन भी नित्य नहि है... क्योंकि- देवों को भी उपपात याने जन्म तथा च्यवन याने मरण का होता हि है, अत: उनके उपपात एवं च्यवन को देखकर - जानकर विषयों का संग न करें... हां ! अब सभी विषयसमूह नि:सार है, अथवा संपूर्ण संसार असार है तथा संसार के सभी स्थान भी अशाश्वत है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में कहतें हैं कि- मोक्षमार्ग स्वरूप सम्यग्ज्ञानादि का मुनी आचरण करे...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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