________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१ - 3 -2-8 (122) 251 IV टीका-अनुवाद : * अनेक चित्त याने कृषि करूं, कि- व्यापार करूं, कि- सेवा (सर्विस) करुं इत्यादि अनेक विकल्पों से भरे हुए चित्तवाला यह सामने प्रत्यक्ष रहा हुआ संसारी प्राणी = पुरुष... क्योंकिसंसार सुख के अभिलाषीओं को सदा अनेक चित्त होते हैं... यहां पूर्व कहे हुए “दधिघटिका" तथा “कपिल-दरिद्र' का दृष्टांत कहीयेगा... इस प्रकार अनेक चित्तवाला वह मनुष्य केतन याने द्रव्यकेतन और भावकेतन... द्रव्यकेतन याने चालिनी परिपूर्णक और समुद्र... तथा भावकेतन याने लोभ-इच्छा... अर्थात् किसीने भी न किया हो ऐसा समुद्र के पार जाकर धन प्राप्ति के लिये उद्यम करता है... क्योंकि- लोभी मनुष्य शक्य और अशक्य के विचार में असमर्थ होने से अशक्य कार्यों में भी प्रवृत्त होता है... तथा वह अपने लोभ कषाय से होनेवाली इच्छाओं को पूर्ण करने में व्याकुल मतिवाला मनुष्य अन्य प्राणीओं का वध करता है, अन्य जीवों को शारीरिक एवं मानसिक संताप होता है, तथा द्विपद याने दास, दासी तथा चतुष्पद याने गाय, बैल, हाथी, घोडे इत्यादि का परिग्रह करता है... तथा जनपद याने देश... और देश में रहनेवाले राजा और प्रजा आदि... अर्थात् वह लोभी मनुष्य मगध आदि जनपद याने देश के राजा तथा प्रजा आदि का वध करता है, परिताप-संताप देता है तथा परिग्रह करता है... क्या लोभवाले यह लोग मात्र वध आदि क्रियाएं हि करते रहते हैं कि- और भी कुछ करतें हैं ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे। V सूत्रसार : कषाय आत्म गुणों के नाशक है। क्रोध प्रीति का, मान विनय का और माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी गुणों का विनाश करता है। क्रोधादि एक-एक आत्म गुण के नाशक हैं; परन्तु लोभ इतना भयंकर शत्रु है कि- वह गुण मात्र को नष्ट कर देता है। लोभ के नशे में मनुष्य इतना बेईमान हो जाता है कि- वह अच्छे-बुरे कार्य का भेद ही नहीं कर पाता। वह न करने योग्य कार्य भी कर बैठता है। लोभी मनुष्य अपनी अनन्त तृष्णा के गढ़े को भरने के लिए रात-दिन दुष्प्रवृत्तियों में लगा रहता है। लोभ आत्मा के अध्यात्मिक विकास में प्रतिबन्धक चट्टान है। इसलिए मुमुक्षु को लोभ के स्वरूप एवं उसके परिणाम को जानकर उसका त्याग कर देना चाहिए। इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... . I सूत्र // 8 // // 122 // 1-3-2-8 ___आसेवित्ता एतं अटुं इच्चेवेगे समुट्ठिया, तम्हा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं नच्चा, अणण्णं चर माहणं, से न छणे, न छणावए, छणतं