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________________ 250 1 -3-2-7 (121) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - अब अप्रमाद का प्रत्यनीक याने शत्रु स्वरूप प्रमाद है... अत: विषय-कषाय आदि प्रमाद से प्रमत्त प्राणी को क्या फल प्राप्त होता है ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र में कहेंगे... v सूत्रसार : इस बात को हम देख चुके हैं कि- हिंसा, असत्य, असंयम आदि दोषों से पाप कर्म का बन्ध होता है। और संयम से पाप कर्म का प्रवाह रुकता है एवं उसके साथ सत्य एवं तप आदि सद्गुण होने से पूर्व बन्धे हुए पाप कर्म का क्षय भी होता है। इस प्रकार संयम की साधना-आराधना से जीव कर्मों का आत्यंतिक क्षय कर देता है। इससे स्पष्ट हुआ किसंयम साधना का फल निष्कर्म-कर्म रहित होना है। ‘एत्थोवरए' पद का अर्थ है-भगवान के वचनों पर विश्वास करके संयम में जो रत है-संलग्न है। और 'सव्वं पावं कम्मं झोसई' का तात्पर्य है- समस्त अवशिष्ट पाप कर्मों का क्षय करना। अतः निष्कर्म बनने के लिए साधक को धैर्य के साथ सत्य संयम का परिपालन करना चाहिए। ____ जो संयम का परिपालन नहीं करते है। उन प्रमादी जीवों की स्थिति का चित्रण करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 7 // // 121 // 1-3-2-7 , अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पुरिण्णए, से अण्णवहाए, अण्णपरियावाए, अण्णपरिग्गहाए, जणवयवहाए, जणवयपरियावाए, जणवयपरिग्गहाए // 121 // II संस्कृत-छाया : अनेकचित्तः खलु अयं पुरुषः, स: केतनं अर्हति पूरयितुम् / सः अन्यवधाय, अन्यपरितापाय, अन्यपरिग्रहाय, जनपदवधाय, जनपदतापाय, जनपदपरिग्रहाय // 121 // III सूत्रार्थ : निश्चित हि अनेकचित्तवाला यह पुरुष है... वह केतन याने समुद्र को धन प्राप्ति के लिये तैरता है, तथा वह अन्य जीवों के वध के लिये, परिताप के लिये एवं दास-दासी एवं पशुओं के परिग्रह के लिये प्रयत्न करता है... तथा जनपद याने देश के लोगों के वध के लिये, परिताप के लिये एवं परिग्रह के लिये विविध युद्ध आदि उपद्रव करता है... / / 121 / /
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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