________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 2 - 6 (120) // 249 भी राग-द्वेष नहीं रखता हुआ समभाव से संयम साधना में संलग्न रहता है। सदा उपशांत भाव में निमज्जित रहता है। और पांच समिति से युक्त होकर तप संयम के द्वारा पूर्व में बन्धे हुए पाप कर्मों का क्षय करने में सदा यत्नशील रहता है। प्रस्तुत सूत्र में ‘परमदंसी' पद से यह अभिव्यक्त किया गया है कि- साधक सम्यग्दर्शन और ज्ञान से सम्पन्न होता है। 'समिए' शब्द चारित्र का परिचायक है और 'विवित्तजीवी' और 'परिव्वए' शब्द तप एवं वीर्य आचार के संसूचक हैं। इस प्रकार इस सूत्र में साधक का जीवन ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य पांचों आचार से युक्त पंचाचार स्वरूप बताया गया है। सांख्य दर्शन आत्मा को कर्म से आबद्ध नहीं मानता है। उसके विचार में आत्मा शुद्ध है, इसलिए बन्ध एवं मोक्ष आत्मा का नहीं किंतु प्रकृति का होता है। परन्तु वस्तुतः संसारी आत्मा बन्धन रहित नहीं है। क्योंकि- वह निष्कर्म नहीं, किंतु कर्मयुक्त है। 'बहु पावं कम्म पगडं' इस पाठ से इसी बात को स्पष्ट किया गया है कि- वह बहुत पापकर्म से आबद्ध है। अतः निष्कर्म होने के लिये व्यक्ति को पापकर्मों का सर्वथा क्षय कैसे करना चाहिए ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 120 // 1-3-2-6 - सच्चंमि धिई कुव्वहा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं जोसइ // 120 // II संस्कृत-छाया : .. सत्ये धृतिं कुरुध्वम्, अत्र उपरत: मेधावी, सर्वं पापं कर्म झोषयति // 120 // III सूत्रार्थ : सत्य याने संयम में धृति करो... यहां संयम में रहा हुआ मेधावी साधु सभी पाप कर्मो का क्षय करता है // 120 // IV टीका-अनुवाद : सत्य याने सत् का हित वह सत्य याने संयम... उन संयम में धृति करो... अथवा सत्य याने जिनेश्वरों का आगम... क्योंकि- आगम शास्त्र वस्तु के यथावस्थित स्वरूप को कहतें हैं... अतः परमात्मा की आज्ञा में धृति करें अर्थात् कुमार्ग का परित्याग करें... तथा इस संयम में अथवा परमात्मा के वचन में अवस्थित याने रहा हुआ मेधावी तत्त्वदर्शी साधु संसार के परिभ्रमण के हेतु ऐसे सभी पाप कर्मो का क्षय करता है... इस प्रकार यहां अप्रमाद कहा...