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________________ 248 1 -3-2 - 5 (119) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन बंधस्थान है... यहां से आगे नामकर्म के बंध का अभाव हि है... अब- गोत्रकर्म का सामान्य से उच्च या नीचगोत्र का एक हि बंधस्थान है... क्योंकिपरस्पर विरोध होने से. उच्चगोत्र और नीचगोत्र दोनो कर्म एक साथ बंधते हि नहि हैं... - इस प्रकार बंधस्थानों को बतलाने के द्वारा संक्षेप से कर्मो का बहोत-पना बतलाया... अतः इन बहोत सारे आत्मा में रहे हुए कर्मो को, उनके कार्य-फल के माध्यम से जान-समझकर, उन कर्मो को आत्मा से दूर करना चाहिये... प्रश्न- हां ! यदि ऐसा है, तो उन कर्मो को दूर करने के लिये क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : जन्म-मरण कर्मजन्य है। आयु कर्म के उदय से जन्म होता है और क्षय होने पर मृत्यु होती है। फिर आयु कर्म उदय होने पर अभिनव योनि में जन्म होता है वहां भी आयुष्य का क्षय होते ही वह उस योनि के भौतिक शरीर को वहीं छोड़ कर चल देता है। इस प्रकार वह जीव बार-बार जन्म मरण के प्रवाह में बहता है और बार-बार गर्भाशय एवं विभिन्न योनियों में अनेक दु:खों का संवेदन करता है। अतः जब तक कर्मबन्ध का प्रवाह चालू है, तब तक आत्मा काल-चक्र से मुक्त नहीं होता। अत: मृत्यु पर विजय पाने के लिए जन्म के कारण कर्म का क्षय करना जरूरी है। जब जीव निष्कर्म हो जाता है; तब फिर वह मृत्यु के दुःख से मुक्त हो जाता है। कारण कि- निष्कर्म आत्मा का जन्म नहीं होता और जब जन्म नही होता-तो फिर मृत्यु का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मृत्यु जन्म के साथ लगी हुई है। हम यों भी कह सकते हैं कि- जन्म का दूसरा रूप मृत्यु है। मनुष्य जिस क्षण जन्म लेता है, उसके दूसरे क्षण ही वह मृत्युकी ओर पांव बढ़ाने लगता है। इसलिए निष्कर्म बनने का अर्थ है-जन्म और मरण की परम्परा को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त कर देना। इसलिए साधक को सब से पहिले निष्कर्मदर्शी बनना चाहिए। उसकी दृष्टि, भावना एवं विचार-चिन्तन निष्कर्म बनने की ओर ही होनी चाहिए। जब मन में निष्कर्म बनने की भावना उबुद्ध होगी, तब ही वह उस ओर पांव बढ़ा सकेगा और उस मार्ग में आने वाले प्रतिकूल एवं अनुकूल साधनों को भली-भांति जान सकेगा। इसी दृष्टि को सामने रख कर कहा गया है कि-वह साधु सप्त भय एवं संयम भार्ग का दृष्टा है। उनके स्वरूप एवं परिणाम को भली-भांति जानता है। इसलिए उसे -परमदर्शी अर्थात् सर्व श्रेष्ठ मोक्ष मार्ग का द्रष्टा कहा है। वह ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न साधक आचार से भी सम्पन्न होता हैं। वह एकांत शांत एवं निर्दोष स्थान में ठहरता है और अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति के उपस्थित होने पर
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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