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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 3 - 2 - 5 (119) : 245 अब आठों कर्मो के उत्तर प्रकृतियों के बंधस्थानक कहतें हैं... उनमें प्रथम ज्ञानावरणीय एवं अंतराय कर्म के पांच-पांच कर्म प्रकृतियों का एक हि बंधस्थानक है... क्योंकि- वे ध्रुवबंधी है... तथा दर्शनावरणीय कर्म के तीन बंधस्थानक हैं... उनमें पांच निद्रा एवं चार दर्शन इन नव प्रकृतियों का ध्रुवबंधी होने के कारण से प्रथम नवविध-बंधस्थानक है... // 1 // तथा अनंतानुबंधि-कषाय के साथ थीणद्धी-त्रिक के बंध का अभाव होता है अतः षडविध बंध का दुसरा स्थान है... // 2 // तथा अपूर्वकरण गुणस्थानक के संख्येय भाग बीतने पर निद्रा एवं प्रचला के बंध का अभाव होता है, तब चतुर्विध बंधका तीसरा स्थान... // 3 / / तथा वेदनीय कर्म का एक हि बंधस्थानक होता है... क्योंकि- साता और असाता परस्पर विरोधि होने के कारण से दोनों का एक साथ बंध हो नहि शकता... तथा मोहनीय कर्म के बंधस्थानक दश (10) हैं... वे इस प्रकार- मिथ्यात्व गुणस्थानक में बाइस (22) कर्मो का बंध होता है... 1. मिथ्यात्व... सोलह कषाय 1+16=17 कोइ भी एक वेद = 18 हास्य-रति या शोक-अरति = 18+2=20 तथा भय और जुगुप्सा 20+2=22... // 1 // इन बाइस (22) कर्मो में से मिथ्यात्व के बंध का अभाव होता है तब सास्वादन गुणस्थानक में इक्कीस (21) कर्मो का बंध होता है / 2 / / तथा इन हि इक्कीस कर्मो में से अनंतानुबंधि चार, कषाय के बंध का अभाव होता है, तब मिश्र एवं अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक में सत्तरह (17) कर्मो का बंध होता है... // 3 // तथा देशविरतिगुणस्थानक में अप्रत्याख्यानीय चार कषायों के बंध का अभाव होने से तेरह (13) कर्मो का बंध होता है // 4 // तथा छढे सातवे एवं आठवे गुणस्थानक में प्रत्याख्यानीय चार कषायों के बंध का अभाव होने से वहां नव (9) कर्मो का बंध होता है // 5 // तथा आठवे गुणस्थानक के अंतिम भाग में हास्य-रति तथा भय-जुगुप्सा के बंध का अभाव होता है, तब पांच (5) कर्मो का बंध होता है // 6 // उसके बाद अनिवृत्तिकरण नाम के नववें गुणस्थानक के संख्येय भाग बीतने पर पुरुषवेद के बंध का अभाव होता है तब चार (4) कर्मो का बंध होता है // 7 // तथा इसी नववे गुणस्थानक में क्रमशः संख्येय-संख्येय भाग बीतने पर अनुक्रम से संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ के बंध का अभाव होता है तब तीन कर्म का, दो कर्म का एवं एक कर्म का बंध होता है... और अनिवृत्तिकरण के अंतिम भाग में संज्वलन लोभ के भी बंधका अभाव होता है, तब मोहनीय कर्म के बंध का संपूर्णतया अभाव होता है... तथा आयुष्य कर्म के चार कर्म प्रकृतियों में से कोई भी एक का हि बंध होता है... क्योंकि- वे परस्पर विरोधि हैं अतः चारों का एक साथ बंध हो नहि शकता... अब नाम-कर्म के आठ बंध स्थानक हैं... वे इस प्रकार- तिर्यंच गति प्रायोग्य तेइस
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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