SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 244 // 1 - 3 - 2 - 5 (119) म श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन शय्यादि से रहित वसति = उपाश्रय में तथा भाव से राग-द्वेष रहित, संक्लेश रहित जीवन जीनेवाले वह मुनी विविक्तजीवी है... तथा पांच इंद्रिय एवं मन (नोइंद्रिय) के विकारों के उपशम से उपशांत... तथा जो मुनी उपशांत होते हैं वे पांच समिति से गन्तव्य ऐसे मोक्षमार्ग में समिति = गमन करनेवाले हैं... तथा सम्यग्ज्ञान आदि से सहित है... और जो मुनी ज्ञानादि से सहित है वह सदा अप्रमादी. अर्थात् यतनावाले होतें हैं... प्रश्न- यहां कहे गये विविक्तजीवी आदि गुण कब तक रहते हैं ? उत्तर- कालाकाङ्क्षी याने जीवन पर्यंत... काल याने मृत्युकाल... अर्थात् आयुष्यक्रम से आये हुए पंडित मरण पर्यंत सर्व प्रकार से प्रव्रज्या का पालन करे... याने विविक्तजीवी इत्यादि गुणवाला वह मुनी जीवनपर्यंत संयमानुष्ठान में उद्यम करे... प्रश्न- हां ! ठीक है, ऐसा हि करें... किंतु क्यों ? उत्तर- मूल एवं उत्तर प्रकृति भेदवाले तथा प्रकृतिबंध स्थितिबंध अनुभाव (रस) बंध तथा प्रवेशबंध स्वरूप, तथा बंध, उदय तथा सत्ता-व्यवस्थावाले, तथा बद्धस्पृष्ट-निद्धत्तनिकाचित्त-अवस्था को प्राप्त कीये हुए कर्म थोडे काल-समय में क्षय नहि होतें, अतः वह मुनी कालाकांक्षी अर्थात् उन कर्मो के क्षय के लिये पंडित मरण पर्यंत संयमानुष्ठान में उद्यम करतें हैं... अब कर्मो के बंधस्थान की अपेक्षा से बहोत सारे मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप दिखातें हैं... जैसे कि१. सभी मूल कर्म प्रकृतियों का बंध करनेवाला प्राणी जीवन में एकबार अंतर्मुहूर्त काल पर्यंत अष्टविध बंधक होता है... 2. तथा आयुष्य कर्म को छोडकर वह प्राणी जीवनभर सप्तविध बंधक होता है... उसका काल... जघन्य से अंतर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त न्यून पूर्वकोटिवर्ष के तृतीय भाग अधिक तैंतीस (33) सागरोपम पर्यंत का काल.. तथा- सूक्ष्मसंपराय (दशवे) गुणस्थानक में मोहनीय कर्म के बंध का अभाव होता है अत: आयुष्य एवं मोहनीयकर्म के सिवा षड्विध छह (6) कर्मो के बंधक हैं... और इसका काल जघन्य से एक समय, और उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त काल है... तथा उपशांतमोह-क्षीणमोह एवं सयोगी केवलीओं को सात कर्मो के बंधका अभाव होता है, अतः मात्र एक साता-वेदनीय का बंध करनेवालों को एकविध कर्मबंध स्थानक होता है... और वह जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटिवर्ष पर्यंत एक कर्म का बंध होता रहता है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy