________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-3-2-5(119) 243 करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि- आत्मा के मूल गुणों के घातक पहिले चार कर्म हैं, इसलिए उन्हें घातिकर्म कहते हैं। उनके नाश का अर्थ है-संसार का नाश। मूल कर्मों के क्षय होते ही शेष कर्म आयुष्य कर्म की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो जाते हैं और यह जीव पूर्णत: निष्कर्म-कर्म आवरण से रहित बन जाता है। निष्कर्म जीव किस गुण को प्राप्त करता है इसका विवेचन करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 119 // 1-3-2-5 एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सया जए कालकंखी परिव्वए... बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं // 119 // II संस्कृत-छाया : एषः मरणात् प्रमुच्यते, सः एव दृष्टभयः मुनिः, लोके परमदर्शी विविक्तजीवी उपशान्त: समितः सहितः सदा यतः, कालाकाङ्क्षी परिव्रजेत् / बहु च खलु पापं कर्म प्रकृतम् // 119 // . III सूत्रार्थ : यह मुनी मरण से मुक्त होता है... वह हि मुनी दृष्टभय है तथा लोक में परमदर्शी, विविक्तजीवी, उपशांत, समितिवाला, ज्ञानादि से सहित एवं सदा यतनावाला है, तथा काल याने मरण की आकांक्षावाला वह प्रव्रज्या का पालन करता है... क्योंकि- इस आत्मा ने निश्चित हि बहोत सारे कर्म बांधे हुए है // 119 // IV टीका-अनुवाद : - यह पूर्वोक्त स्वरूपवाला मूलाग्रह का रेचक, तथा निष्कामदर्शी मुनी मरण से मुक्त होता . है, अर्थात् अब आयुष्य कर्म का बंध नहि करता है... अथवा तो आजवंजवीभाव से (आवगमन से) या आवीची-मरण से मुक्त होता है... क्योंकि- संपूर्ण संसार के प्राणीगण आवीची-मरण से सतत मरते हि रहते हैं, ऐसे मरण से यह मुनी मुक्त होता है, अर्थात् मोक्षपद पाता है... तथा उस मुनीने संसार के सात प्रकार के भयों को अच्छी तरह से देखा-समझा है तथा लोक में अर्थात् चौदह राज प्रमाण धर्मास्तिकायादि द्रव्यो के आधार स्वरूप लोक में अथवा तो चौदह प्रकार के गुणस्थानक में परम याने मोक्ष, तथा मोक्ष के कारण स्वरूप संयम को देखनेवाला वह मुनी है... तथा विविक्त याने द्रव्य से स्त्री, पशु एवं पंडक = नपुंसकवाली