________________ 242 1 - 3 - 2 - 4 (118) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्म प्रकृतियों का बंध करतें हैं... तथा आठों कर्मप्रकृतियों का क्षय भी मोहनीय के क्षय बिना अशक्य हि है... कहा भी है कि- जिस प्रकार सेनापति के विनाश होने में हि सेना का क्षय होता है, उसी प्रकार मोहनीय के क्षय होने से हि शेष सभी कर्मो का क्षय होता है... इत्यादि... अथवा मूल याने असंयम, कर्म अथवा संसार-वास तथा अग्र याने संयम-तप, या मोक्ष... हे धीर ! पुरुष ! तुम ऐसा जानो कि- मूल दु:ख का कारण है, तथा अग्र सुख का कारण है... धीर याने जो संकट से क्षोभ न पावे, अथवा जो विवेक से विराजित है, वह धीर... अतः धीर पुरुष तप एवं संयम के द्वारा रागादि बंधन या उनके कार्य स्वरूप कर्मों का छेद करके निष्कर्मदर्शी होता है... अर्थात् आत्मा को कर्मो से भिन्न देखनेवाला, अथवा कर्मो के आवरण का दूर होने से निष्कर्मी ऐसा वह धीर मुनी सर्वदर्शी केवलज्ञानी होता है... ___ जो मुनी निष्कर्मदर्शी होता है, वह अन्य कौन से गुणों को प्राप्त करता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रबुद्ध पुरुष पाप कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है। प्रबुद्ध पुरुष वह है, जो लोक के यथार्थ स्वरूप को जानता है। जो इस बात को भली-भांति जानता है कि- यह जीव आरम्भ-समारम्भ आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर कर्म का संग्रह करता है और उसके परिणाम स्वरूप नरकादि लोक में विभिन्न दुःखों का संवेदन करता है। इसके साथ वह यह भी जान लेता है किजीव आरम्भ आदि दोष जन्य प्रवृत्ति से निवृत्त निष्कर्म बन जाता है और वह हि मार्ग मोक्षमार्ग कहलाता है। अतः लोक एवं मोक्ष के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला साधक ही प्रबुद्ध पुरुष कहलाता है। और वह यथार्थद्रष्टा पाप कार्य के दुःखद परिणामों को जानता है, इसलिए वह पाप कार्य में प्रवृत्ति नहीं करता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त ‘अग्गं च मूलं च.......' पाठ इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि- भगवान महावीर या जैन दर्शन का मूल लक्ष्य संसार वृक्ष के पत्तों को ही नहीं, किंतु उसकी जड़ को उखाड़ने का रहा है। उन्होंने अग्र भाग को भी समाप्त करने की वात कही है... परन्तु साधक का लक्ष्य केवल शाखा-प्रशाखाओं का नाश तक ही नहीं, किंतु उस विषाक्त वृक्ष को जड़ से उन्मूलन करने का है। जैन दर्शन मात्र ऊपर ऊपर से ही कांट-छांट करने का पक्षपाती नहीं है, वह जड़ मूल से संसार-वृक्ष का नाश करने का उपदेश देता है। ___ मूल कर्म चार हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म क्योंकि- ये आत्मा के अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र सुख और अनंत वीर्य-शक्ति को ढकने वाले हैं। शेष चार कर्म-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म आत्मा के मूल गुणों को प्रभावित नहीं