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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-3-2-4 (118); 241 इन सब पाप कार्यों का मूल कारण विषय-कषाय है। अत: मुमुक्षु पुरुष को विषयकषाय का परित्याग करके पाप कर्म से सर्वथा निर्वृत्त हो जाना चाहिए। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 4 // // 118 // 1-3-2-4 तम्हाऽतिविज्जो परमं ति नच्चा, आयंकदंसी न करेइ पावं। अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिंदिया णं णिक्कमदंसी // 118 // II संस्कृत-छाया : तस्मात् अति विद्वान, परमं इति ज्ञात्वा, आतङ्कदर्शी न करोति पापम् / अग्रं च मूलं च त्यज धीर ! परिछेद्य निष्कर्मदर्शी // 118 // III सूत्रार्थ : इसीलिये विद्वान मुनी परम याने मोक्ष पद को जानकर, आंतकदर्शी ऐसा वह मुनी पाप न करे... हे धीर ! अग्र एवं मूल का त्याग करके, कर्मो के बंधनो को छेद कर निष्कामदर्शी बनो...॥ 118 // IV टीका-अनुवाद : जिस कारण से बाल के संग करनेवाले वैर को बढातें है, तस्मात् विद्वान मुनी सर्वसंवर स्वरूप मोक्ष-पद परम है ऐसा जानकर, अथवा तो सर्वसंवर स्वरूप चारित्र या सम्यग्ज्ञान या सम्यग्दर्शन परम है ऐसा जानकर, आतंक याने नरक आदि के दुःख को देखनेवाला वह मुनी पाप के अनुबंधवाले कर्म नहि करता... उपलक्षण से, अन्य के द्वारा पाप-कार्य करवाता नहि है, अन्य के पापकार्यों की अनुमोदना भी नहि करता किंतु वह मुनी अग्र याने चार अघाति कर्म तथा मूल याने चार घातिकर्म अथवा तो मोहनीय कर्म मूल है और शेष सात कर्म अग्र है... अथवा तो मिथ्यात्व मूल है, और शेष सभी कर्म अग्र है... अतः इन अग्र एवं मूल का त्याग करे अर्थात् आत्मा से उन्हें दूर करो... सारांश यह है कि- अभी पुद्गल स्वरूप कर्मो का संपूर्ण विनाश तो संभवित है हि नहिं, किंतु अपने आत्मा से दूर वे तो हो शकतें तथा आगमसूत्र में भी कहा है कि- हे भगवन् ! जीव आठ कर्म प्रकृतियां कैसे बांधतें हैं ? हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से दर्शनावरणीय कर्म को बांधता है, तथा दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय कर्म को बांधता है, और दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को बांधता है, और मिथ्यात्व के उदय से हि जीव आठों
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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