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________________ 240 1 -3-2-3 (197) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इसीलिये कहते हैं कि- बाल याने अज्ञानी जीवों को प्राणातिपात आदि स्वरूप पापाचरण का संग अथवा विषय और कषाय का संग अच्छा नहि है... अर्थात् अज्ञानी जीव हास्य आदिका संग न करे यह हि उसके लिये अच्छा है... क्योंकि- हास्य आदि के संग से वह अज्ञानी प्राणी अन्य पुरुष आदि के वध से उत्पन्न होनेवाले अपने वैर को बढाता है... जैसे कि- गुणसेन राजकुमार ने हास्य-विनोद को लेकर विविध प्रकार के उपायों से अग्निशर्मा का उपहास करने से नंव भव पर्यंत के वैर-भाव को बढाया था... इसी प्रकार अन्य जीवों के संबंध में भी विषयों के संग से होनेवाले वैरानुबंध को स्वयं हि जानीयेगा... हां ! यदि ऐसा है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि- हास्य एवं अज्ञान से आत्मा में वैर भाव बढ़ता है। क्योंकि- हास्य एवं अज्ञान के वश मनुष्य हिंसा आदि पाप कार्य में प्रवृत्त होता है और उसमें आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता है। परन्तु मरने वाला प्राणी उस दुःख से बचने के लिए पूरा प्रयत्न करता है, अपनी सारी शक्ति लगा देता है। कारण यह है कि- सभी प्राणी जीने के इच्छुक हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए हम देखते हैं कि- वध बंधन एवं, बलिदान के स्थान पर या किसी अन्य स्थान में मारने के लिए लाए हुए बकरे आदि पशुओं को जब मारा जाता है, तो वे उसके कठोर बन्धन से मुक्त होने का प्रयत्न कहते हैं। उनकी इस चेष्टा को रोकने के लिए घातक के मन में क्रूरता और अधिक उग्र रूप धारण करती है और प्रतिक्षण द्वेष-भाव बढ़ता है। उधर मरने वाले प्राणी के मन में भी प्रतिफलबदले की भावना उबुद्ध होती है-भले ही वह दुर्बल होने के कारण अपनी चेष्टा में सफल नही होता, परन्तु प्रतिशोध की भावना उसके मन में रहती है। इस प्रकार दोनों व्यक्ति वैर भाव का अनुबन्ध कर लेते हैं। इससे यह कहा गया कि- ऐसा अज्ञानी व्यक्ति एवं उसका संसर्ग करने वाला व्यक्ति भी वैर भाव को बढ़ाता है। कुछ लोग केवल विनोद एवं शौर्य प्रदर्शन के लिए शिकार करके प्रसन्न होते हैं। कुछ लोग वेद विहित यज्ञों में एवं देवी-देवताओं को तुष्ट करने के लिए पशुओं का बलिदान करके आनन्द मनाते हैं। इस प्रकार स्वर्ग एवं पुत्र-धन आदि की प्राप्ति तथा शत्रुओं के नाश के लिए या धर्म के नाम पर मूक एवं असहाय प्राणी की हिंसा करना, धर्म की पवित्र मानी जाने वाली वेदी को निरपराधी प्राणियों के खून से रंग कर आनन्द मनाना भी पतन की पराकाष्ठा है, अतः आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट बाल-भाव अज्ञान हि है। इस अज्ञान से हि आत्मा अधः पतन के महागर्त में गिरता है।
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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