________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1- 3 - 2 - 3 (117) // 239 - V सूत्रसार : आगम में राग-द्वेष को कर्म का मूल बीज बताया है। अतः प्रस्तुत सूत्र में राग-स्नेह बन्धन के त्याग का उपदेश दिया गया है। क्योंकि- जिस व्यक्ति के प्रति अनुराग होता है, मोह होता है तो उसके लिए मनुष्य अच्छे बुरे किसी भी कार्य को करने में संकोच नहीं करता। इसके लिए वह आरम्भ समारंभ एवं विषय वासना में सदा आसक्त रहता है और इससे पाप कर्म का संचय एवं प्रगाढ़ बन्ध करता है, परिणाम स्वरूप बार-बार गर्भ में जन्म ग्रहण करता है। ___ अतः हे आर्य ! तू कर्म एवं जन्म-मरण के मूलकारण राग भाव या स्नेह बन्धन को तोड़ने का प्रयत्न कर। और सावधान होकर संयम मार्ग पर गति कर। जो व्यक्ति विना सोचे-विचारे, अविवेक पूर्वक काम करते हैं, उनके संसर्ग से क्या होता है ? यह बात सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहते हैं... I सूत्र // 3 // // 117 // 1-3-2-3 आवि से हासमासज्ज, हंता नंदीत्ति मण्णइ / अलं बालस्स संगेण, वेरं वड्डेइ अप्पणो // 117 // I संस्कृत-छाया : अपि सः हास्यमासाद्य, हन्त ! नन्दी इति मन्यते। अलं बालस्य सङ्गेन, वैरं वर्धयति आत्मनः // 117 // III सूत्रार्थ : . कभी वह हास्य को प्राप्त करके, प्राणीओं के वध को क्रीडा समझता है... इसलिये कहते हैं कि- बाल याने अज्ञानी जीवों की संगति से क्या ? क्योंकि- ऐसा करने से तो अपने आत्मा का हि वैर-भाव बढाता है // 117 // IV टीका-अनुवाद : ह्री याने लज्जा तथा भय आदि निमित्त से होनेवाला चित्त का विप्लव याने हल्लागुल्ला, वह हास्य है... ऐसे हास्य के साथ वह कामासक्त प्राणी अन्य प्राणीओं का वध करके खुस होता है... और महामोह के कारण से अशुभ अध्यवसायवाला वह कहता है कि- यह सभी पशुगण मृगया याने शिकार के लिये बनाये गये है, और शिकार करना यह हम लोगों की क्रीडा हि है... इस प्रकार मृषावाद, अदत्तादान आदि पापाचरण में भी स्वयं समझ लीजीयेगा...