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________________ 232 // 1-3-1-6(114) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कर्म बन्धनों से सर्वथा मुक्त होकर अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है, अत: मुमुक्षु का कर्तव्य है कि- असंयम से निवृत्त होकर संयम में प्रवृत्ति करे। ___ प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'जे पज्जवज्जायसत्थस्स खेयन्ने' का अर्थ है- जो व्यक्ति शब्दादि विषयों की आकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली क्रियाओं एवं उसके परिणाम का ज्ञाता है वही विशुद्ध संयम का परिज्ञाता हो सकता है। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र का हेतुहेतुमद्भाव से वर्णन किया है। अर्थात् जो व्यक्ति संसार परिभ्रमण के कारणों का परिज्ञाता है; वह मोक्ष पथ का भी ज्ञाता हो सकता है। 'अकम्मस्स ववहारो न विज्जई' का अर्थ है-मोक्ष मार्ग पर गतिशील साधक समस्त कर्म बन्धनों को तोड़ देता है। अतः आठ कर्मों से मुक्त वह व्यक्ति फिर से संसार में नहीं आता। इससे यह स्पष्ट कर दिया है कि- कर्म बन्धन से मुक्त आत्मा फिर से संसार में अवतरित नहीं होती - कर्म युक्त आत्मा ही जन्म-मरण के प्रवाह में बहती रहती है। कर्म रहित आत्मा जन्म ग्रहण नहीं करती है। क्योंकि- जन्म-मरण का मूल कारण कर्म है और सिद्ध अवस्था में कर्म का सर्वथा अभाव है। वस्तुतः कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप में रमण करती है; फिर वह संसार में नहीं भटकती है। अत: मुमुक्षु को कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों को सर्वथा क्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार कहते हैं- .. I सूत्र // 6 // // 114 // 1-3-1-6 कम्ममूलं च जं छणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे, तं परिणाय मेहावी, विइत्ता लोगं, वंता लोगसण्णं, से मेहावी परिक्कमिज्जासि त्तिबेमि // 114 // II संस्कृत-छाया : कर्ममूलं च यत् क्षणं, प्रत्युपेक्ष्य सर्वं समादाय, द्वाभ्यां अन्ताभ्यां अदृश्यमानः, तं परिज्ञाय मेधावी, विदित्वा लोकं, वान्त्वा लोकसंज्ञां, स: मेधावी पराक्रमेत इति ब्रवीति // 114 // III सूत्रार्थ : क्षण याने हिंसा कर्ममूलक हि है... अतः कर्म और कर्म मुक्ति के सभी उपदेश को ग्रहण करके राग एवं द्वेष से अलिप्त होकर उन कर्मो की परिज्ञा करके मेधावी साधु लोक को जानकर, लोकसंज्ञा को छडकर वह मेधावी साधु संयमानुष्ठान में पराक्रम करें... ऐसा मैं
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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