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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 71 - 3 - 1 - 5 (113) 231 भगवान् है तब उन्हें शैलेशी के अंतिम समय में तीर्थंकर नामकर्म के अभाव में आठ (8) कर्मो की सत्ता होती है... और अंतिम समय में यह आठ कर्मो की सत्ता का क्षय होने से वह पुन्यात्मा अशरीरी, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है... अब गोत्रकर्म के सामान्य से दो सत्तास्थान हैं... उच्चगोत्र एवं नीचगोत्र (दोनों) की सत्ता के सद्भाव में पहला सत्तास्थान... तथा तेउकाय (अग्नि) एवं वाउकाय (वायु) जीव जब उच्चगोत्र का उद्वलन करता है तब कालंकली व्याकुल -अवस्था में उन्हें मात्र एक नीचगोत्र की सत्ता होती है... यह दुसरा सत्तास्थान... अथवा तो- अयोगी केवली भगवान् अंतिम समय में जब नीचगोत्र की सत्ता का क्षय करतें है तब उन्हें मात्र एक उच्चगोत्र की सत्ता होती है... इस प्रकार गोत्रकर्म में जब दोनो गोत्र की सत्ता होती है तब दो गोत्रकर्मवाला पहला सत्तास्थान... तथा दो प्रकार के गोत्रकर्म में से जब कोई भी एक हि प्रकार का गोत्रकर्म सत्ता में होता है तब दुसरा सत्तास्थान... इस प्रकार आठों कर्मो के उत्तर भेद 148 कर्म प्रकृतियां के स्वरूप को जान-समझकर, उनकी सत्ता के विच्छेद के लिये हि साधु सदा प्रयत्न करे... v सूत्रसार : संसार परिभ्रमण का मूल कारण राग-द्वेष जन्य प्रवृत्ति है। प्रमादी व्यक्ति कषायों के वश होकर आरम्भ-हिंसा करता है और परिणाम स्वरूप अशुभ कर्मों का बन्ध करके नरक, तिर्यंच आदि गतियों में अनेक प्रकार के दुःखों का संवेदन करता है। इस प्रकार व्यक्ति शब्दादि विषयों में आसक्त होकर हिंसा आदि दोषों में प्रवृत्त होकर जन्म, जरा और मृत्यु के प्रवाह में बहता रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि- हिंसा जन्य प्रवृत्ति में प्रवर्तमान व्यक्ति दु:खों के महागर्त में जा गिरता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- समस्त दुःखों का मूल स्रोत हिंसाजन्य प्रवृत्ति है। हम यों भी कह सकते हैं कि- जो व्यक्ति संयम से विमुख है, शब्दादि विषयों . में आसक्त है, वह आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर पाप कर्मों का बन्ध करता है और परिणाम स्वरूप विभिन्न योनियों में जन्म-जरा और मरण को प्राप्त करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अप्रमत्त है; जागरणशील है, विवेकशील है, संयम-असंयम का परिज्ञाता है, वह आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होता। उसकी प्रत्येक क्रिया संयम से युक्त होती है और वह प्रतिक्षण जागरूक रहता है, विवेक के साथ साधना में प्रवृत्त होता है, अत: वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता। परन्तु संयम एवं तप के द्वारा नए कर्मों के आगमन को रोकता है और पुरातन आबद्ध कर्मों की निर्जरा करता रहता है। इस प्रकार वह एक दिन
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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