________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 卐१ -3 - 1 - 5 (113) // 227 तथा उन कर्मो का क्षय इस क्रम से होता है... जैसे कि- आठ कर्मवाला प्राणी अपूर्वकरण-क्षपकश्रेणी के क्रम से मोहनीय कर्म का क्षय करके जघन्य से और उत्कृष्ट से भी अंतर्मुहूर्त्तकाल पर्यंत सात कर्मवाला क्षीणमोह गुणस्थानक में होता है... तथा शेष (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अंतराय) तीन घातिकर्मो के क्षय से सयोगी केवली गुणस्थानक में आत्मा चार अघाति कर्मो की सत्तावाला होता है... उसका काल जघन्य से अंतमुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि वर्ष पर्यंत... उसके बाद पांच हृस्वाक्षर के उच्चारण कालवाली शैलेशीअवस्था याने अयोगी केवली गुणस्थानक का अनुभव करके वह प्राणी अकर्मा (सिद्ध-बुद्धमुक्त) होता है... __ अब आठ कर्मो की 158 उत्तर कर्म प्रकृतियां की सत् एवं असत् अर्थात् सत्ता और कर्म क्षय का विधान करते हुए कहते हैं कि- ज्ञानावरणीय की पांच (5) प्रकृतियां तथा अंतराय कर्म की पांच (5) प्रकृतियां की सत्ता चौदह (14) जीव स्थानक में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक से लेकर क्षीणमोह पर्यंत के बारह गुणस्थानक में (सत्ता) होती है... . तथा दर्शनावरणीय कर्म की नव (9) प्रकृतियां है, उनके तीन सत्ता स्थानक होतें हैं... उनमें पांच निद्रा एवं चार दर्शनावरणीय सत्ता (14) जीवस्थानक में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक से लेकर नववे (9) अनिवृत्तिबादर गुणस्थानक के संख्येय भाग पर्यंत होती है... (1) उसके बाद कितनेक संख्येय भाग बीतने पर थीणद्धि-त्रिक का क्षय होनेसे छह (6) कर्म की सत्ता होती है... (2) उसके बाद क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थानक के द्विचरम-समय में निद्रा एवं प्रचला के क्षय से चार कर्मो की सत्ता होती है... 3. और उन शेष चार कर्मो की सत्ता का क्षय बारहवे गुणस्थानक के अंत में होती है... - अब वेदनीय कर्म के सत्तास्थान दो (2) हैं... उनमें साता एवं असाता दोनों कर्म की सत्ता का पहला स्थान चौदहवे अयोगी केवली गुणस्थानक के द्विचरम समय पर्यंत है, और दुसरा सत्ता स्थान मात्र अंतिम समय में हि होता है, और वहां साता या असता कोइ भी एक कर्म की सत्ता होती है... अब मोहनीय कर्म के पंद्रह (15) सत्तास्थान हैं... वे इस प्रकार- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि आत्मा को सोलह कषाय, नव नोकषाय एवं दर्शन मोहनीय के तीन = अट्ठाइस (28) कर्मो का पहला सत्तास्थान... उनमें सम्यकत्व मोहनीय कर्म का सत्ता में से उद्वलन होने से मिश्र-दृष्टि आत्मा को सत्ताइस (27) कर्मो का द्वितीय सत्तास्थान है... तथा सम्यकत्व मोहनीय एवं मिश्रमोहनीय, दोनों कर्मो का सत्ता में से उद्वलन हो, तब मिथ्यादृष्टि आत्मा को छब्बीस (26) कर्मो का तृतीय सत्तास्थान होता है... तथा सम्यग्दृष्टि को अट्ठाइस (28) कर्मो की सत्ता में से अनंतानुबंधि चार कषायों का उद्वलन या क्षय होने से चोबीस (24)