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________________ 2261 -3 - 1 - 5 (113) " श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है वह पर्यवजातशस्त्र का खेदज्ञ है... यहां सारांश यह है कि- शब्दादि के इष्ट पर्याय की प्राप्ति एवं अनिष्ट पर्याय के परिहार के लिये आरंभ स्वरूप शस्त्र को जो साधु जानता है वह साधु जीवों का घात न हो, ऐसा तथा आत्मा (स्व) एवं अन्य को उपकारक अशस्त्र ऐसे संयम को भी जानता है... इस प्रकार शस्त्र और अशस्त्र को जाननेवाला हि आरंभ का हेय = परिहार और संवर का उपादेय = प्राप्ति-स्वीकार करता है... क्योंकि- ज्ञान का फल हेयोपादेय स्वरूप आचरण हि है... . अथवा तो- शब्दादि पर्यायों से या उन शब्दादि से होनेवाले राग-द्वेष के पर्यायों से आत्मा में जो ज्ञानावरणीयादि कर्मबंध होता है... और उन कर्मो को जलानेवाले शस्त्र-अग्नि स्वरूप तपश्चर्या का खेदज्ञ है, अर्थात् तपश्चरण में निपुण है... तथा तपश्चर्या के ज्ञानानुष्ठान से वह अशस्त्र याने संयम का खेदज्ञ है... अब उस संयम-तप से एवं आश्रवों के निरोध से अनादि भव से प्राप्त हुए कर्मो का क्षय होता है... अब कर्मो के क्षय से जो अवस्था प्राप्त होती है वह कहते हैं... आठ प्रकार के कर्मो के क्षय से आत्मा अकर्मा होता है, अत: उसको व्यवहार नहि होता... व्यवहार याने आत्मा का नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव स्वरूप जन्म तथा पर्याप्तक, अपर्याप्तक, बाल, कुमार इत्यादि अवस्थाएं नहि होती... तथा जो आत्मा सकर्मा है वह नारक आदि व्यवहार वाला होता है... उपाधि याने व्यपदेश-कथन... अर्थात् ज्ञानावरणीयादि कर्मो के कारण से हि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञानवाला प्राणी मंदमति या तीक्ष्णमति कहलाता है... तथा चक्षुर्दर्शनी एवं अचक्षुर्दर्शनी निद्रालु इत्यादि कहलाता है... इसी प्रकार यह प्राणी कर्मो के कारण से हि सुखी, दु:खी, मिथ्यादृष्टि, सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्र), स्त्री, पुरुष, नपुंसक, कषायी इत्यादि... तथा सोपक्रमायुष्क, निरुपक्रमायुष्क, अल्पायुष्क इत्यादि... तथा नारक, तिर्यंच, एकेंद्रिय, बेइंद्रिय, इत्यादि... पर्याप्तक, अपर्याप्तक, सुभग, दुर्भग इत्यादि... तथा उच्चगोत्र, नीचगोत्र, कृपण, त्यागी, निरुपभोग, निर्वीर्य, इत्यादि प्रकार से यह प्राणी कर्मो के कारण से हि उपाधि को प्राप्त करता है... __ हां ! यदि ऐसा हि है, तो अब क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहतें हैं कि- कर्मो की पर्यालोचना करें... अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्म के प्रकृतिबंध स्थितिबंध रसबंध एवं प्रदेशबंध की विचारणा करें... तथा उन कर्मो की सत्ता एवं उन कर्मो के विपाकोदयवाले प्राणी जिस प्रकार भावनिद्रा से सोतें है, उस प्रकार को जानकर के अकर्मता के उपाय स्वरूप भाव जागर में प्रयत्न करें...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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