SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 222 1 - 3 - 1 - 4 (112) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन के दो प्रकार हैं... 1. पूर्वोपवर्णक, एवं 2. पश्चात् उपवर्णक... उनमें जो पूर्वोपवर्णक हैं, वे विशुद्ध वर्णवाले नहिं हैं... और जो पश्चात् उपवर्णक हैं, वे विशुद्धवर्णवाले हैं... इसी प्रकार लेश्या आदि भी... क्योंकि- च्यवनकाल में सभी देवताओं को पुष्पमाला का करमाना, कल्पवृक्ष में कंपन होना, श्री एवं ह्रीका विनाश... वस्त्रों में जीर्णता, मन में दीनता, शरीर में तंद्रा, कामराग से अंग की विकृत चेष्टा, दृष्टि में भ्रम होना, शरीर में कंपन और चित्त में अरति का होना संभवित है... हां ! यदि ऐसा हि है, कि- सभी जीव जरा एवं मृत्यु के वश में हि हैं... अतः उन्हें देखकर क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : साधक का लक्ष्य है-मोक्ष अर्थात् कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त होना। इसी लक्ष्य को, साध्य को सिद्ध करने के लिए वह साधना करता है। जब साधक अपने साध्य में तन्मय होता है, तो उसे उस समय बाह्य संवेदन की अनुभूति नहीं होती। क्योंकि- अनुकूल एवं प्रतिकूल विषयों का अनुभव मन के द्वारा होता है। जब इन्द्रियों के साथ मन का संबन्ध जुड़ा होता है, तो हमें उसके द्वारा अच्छे-बुरे विषयों का अनुभव एवं उससे सुख-दुःख का संवेदन होता है। परन्तु जब मन का सम्बन्ध परमात्मा के साथ जुड़ा होता है, वह अपने लक्ष्य में तन्मय होता है, तो उस समय उसे इन्द्रियों के साथ विषयों का संबन्ध होते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं होती, सुख-दुःख का संवेदन नहीं होता। आगमों में भी वर्णन आता है कि- साधु दिन के तीसरे पहर में भिक्षा के लिए जाते थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि- उनको गर्मी नहीं लगती थी। उष्णता का स्पर्श तो होता था, परन्तु मन आत्मा संयम-साधना में संलग्न होने के कारण उस कष्ट की अनुभूति नहीं होती थी। कभी-कभी चिन्तन में इतनी तन्मयता हो जाती है, कि- उन्हें पता ही नहीं लगता कि गर्मी पड़ रही है या नहीं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि- जब साधक अपने लक्ष्य या साध्य को सिद्ध करने में तन्मय हो जाता है, तो उस समय वह अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषह को आसानी से सहन कर लेता है। प्रस्तुत सूत्र में यही बताया गया है कि- मोक्ष की तीव्र अभिलाषा रखने वाला साधु शीतोषण परीषह को समभाव पूर्वक सहन कर लेता है। और वह वैर-विरोध से निवृत्त होकर संयम साधना में संलग्न हो जाता है। और इस प्रक्रिया के द्वारा वह समस्त कर्म बन्धन तोड़कर मुक्त हो जाता है और अन्य प्राणियों को मोक्ष का मार्ग बताने में समर्थ होता है। इसके विपरीत जिसका मन साधना में नहीं लगा है, जिसके समक्ष कोई लक्ष्य नहीं
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy