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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-3-1-4 (112) // 221 III सूत्रार्थ : - जो शीत एवं उष्ण का त्यागी है वह निग्रंथ है... अरति एवं रति को सहन करनेवाला मुनी परुषता (कठोरता) को नहि जानतें हैं... अत: वीर ! तुं जाग एवं वैर से निवृत्त हो... इस प्रकार तुं दु:खों से मुक्त होगा... सतत जरा एवं मृत्यु के वश में रहा हुआ मूढ मनुष्य धर्म को समझ नहि शकता... // 112 / / IV टीका-अनुवाद : बाह्य एवं अभ्यंतर ग्रंथि से रहित, शीत एवं उष्ण का त्यागी, साता एवं दुःखों की नहि चाहनेवाला अथवा शीतोष्ण रूप परीषहों को सहन करनेवाला संयमासंयम में अरति एवं रति को सहन करनेवाला एवं कर्मो के क्षय में उद्यत वह साधु परीषह एवं उपसर्गों की पीडा दायक परुषता याने कर्कशता को मोक्षमार्ग में सहायक मानता है... अर्थात् शरीर को पीडा देनेवाली परुषता को पीडा-दायक नहि मानता... अथवा संयम या तपश्चर्या की परुषता को पीडा-दायक नहि मानता... किंतु परीषदों को प्रशमभाव से सहन करने में कर्मो के लेप दूर होतें हैं ऐसा मानता हुआ, संसार से उद्विग्न मनवाला तथा निराबाध सुख को हि देखनेवाला वह मुमुक्षु साधु संयम और तप को पीडा कारक नहि मानता... तथा असंयम और निद्रा का अपगम याने दूर हो जाने से जागरण करनेवाला वह साधु “जागर" है तथा अभिमान से उत्पन्न होनेवाला अमर्श याने ईर्ष्या के अभाव में अन्य को अपकार करने के अध्यवसाय स्वरूप वैर से वह साधु उपरत याने विराम प्राप्त करता है... तथा वीर याने कर्मो को दूर करने की शक्तिवाले हे वीर ! आत्मा को अथवा अन्य को दुःखों से या दुःखों के कारण ऐसे कर्मो से मुक्त करो ! जो साधु यथोक्त स्वरूप से विपरीत है, तथा आवर्त एवं श्रोत के संग को पाया हुआ है, और अजागर याने सोया हुआ है, वह प्राणी वृद्धावस्था एवं मरण से वश बना हुआ एवं निरंतर मूढ याने महामोह से मोहित मतिवाला होने के कारण से धर्म तथा स्वर्ग एवं अपवर्ग याने मोक्षमार्ग को जानता नहि है... तथा इस संसार में ऐसा कोई स्थान हि नहि है कि- जहां जरा याने वृद्धावस्था और मरण नहि है... प्रश्न- देवों को जरा याने वृद्धावस्था का अभाव होता है न ? उत्तर- ना, ऐसा नहि है... क्योंकि- देवों को भी मरण के पूर्व के समय में लेश्या, बल, सुख, प्रभुत्व, और वर्ण-कांति आदि की हानि याने क्षीणता होती है... अत: इस प्रकार देवों को भी जरा याने वृद्धावस्था होती हि है... प्रश्न- कहा भी है कि- हे भगवन् ! क्या सभी देव समान वर्ण-कांतिवाले हैं ? उत्तर- हे गौतम ! ऐसा कभी भी नहि होता... हे भगवन् ! ऐसा क्यों ? हे गौतम ! देवों
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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