________________ 2161 - 3 -1 - 2 (110) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हैं वे मुनी हि लोक को जानते हैं... यहां सारांश यह है कि- इष्ट याने. अच्छे शब्दादि विषयों में मुनी राग नहिं करतें, और अनिष्ट याने बूरे शब्दादि विषयों मे मुनी द्वेष नहिं करतें... ऐसा सम्यग् बोध स्वरूप विवेक उन विवेकी मुनीओं को हि होता है.... अथवा तो शब्द आदि विषय इसी जन्म में हि दुःखके लिये होतें है... परलोक की तो अभी बात हि छोडों ! कहा भी है कि शब्द में अनुरागी हरण (मृग) स्पर्श में अनुरागी हाथी रस में अनुरागी मच्छलीयां रूप में अनुरागी पतंगीये... और गंध में अनुरागी नाग (सर्प) यहां इसी जन्म में हि विनाश को पाते हैं.... ' परमार्थ को नहि जाननेवाले यह पांचो प्रकार के जीव यदि एक एक इंद्रिय के विषय में अनुरागी होने से विनाश को पाते हैं, तब पांचो हि इंद्रियों के विषय में अनुरागी होनेवाला अबुध मनुष्य भस्मांतता याने मरण को हि पाता है... अथवा... शब्द में त्रिपृष्ठ वासुदेव का शप्यापालक.,. रूप में अर्जुन नाम का तस्कर याने चौर... गंध में गंधप्रिय कुमार रस में सौदास नाम का पुरुष और स्पर्श में सत्यकि विद्याधर... अथवा सुकुमारिका का पति ललितांग... मरणांत कष्ट को प्राप्त हुए.... और जन्मांतर में नारक आदि दुर्गति की पीडाओं का भय... इस प्रकार शब्द आदि विषय इस जन्म और जन्मांतर में दुःख स्वभाववाले हैं ऐसा जानकर जो प्राणी उन शब्दादि विषयों के अनुराग का त्याग करता है, उसे कौन सा गुण प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... . V सूत्रसार : अज्ञान एवं मोह आदि से पाप कर्म का बन्ध होता है। और अशुभ कर्म का फल दुःख रूप में प्राप्त होता है। इस प्रकार सूत्रकार ने अज्ञान को दु:ख का कारण बताया है और ज्ञान को दुःख से मुक्त होने का कारण कहा है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि- साधक को संयम एवं आचार के स्वरूप को जानकर उसका परिपालन