________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-3-1-2 (110) // 215 जानकर..: वह यहां आरंभादि शस्त्र से विराम करता है... कि- जिसने यह शब्द, रूप, रस, गंध एवं स्पर्शों का सम्यग् ज्ञान से विवेक प्राप्त किया है... // 110 // IV टीका-अनुवाद : इस छ जीवनिकाय स्वरूप लोक में दुःखों का कारण अज्ञान है... अतः मोहनीयकर्म स्वरूप दुःखों को जानो... क्योंकि- यह दुःख नरक आदि जन्मों के संकट में पड़ने के लिये होता है अथवा यहां इसी जन्म में हि बंधन, वध तथा शारीरिक एवं मानसिक पीडाओं के लिये होता है... यह बात अच्छी तरह से समझीयेगा... इन दु:खों के परिज्ञान से साधु अज्ञान स्वरूप एवं दु:खों के हेतु ऐसे द्रव्य एवं भाव निद्रा याने सोया रहने से निवृत्त होता है... तथा समय याने आचार-अनुष्ठानों को जानकर साधु पृथ्वीकायादि के शस्त्रारंभ से निवृत्त होता है... सामान्य से लोक याने प्राणी भोगसुखों की अभिलाषा के कारण से अन्य जीवों को पीडा देने स्वरूप कषाय निमित्तक कर्मो का बंध करके नरकगति आदि स्थानो में उत्पन्न होता है, बाद में वहां से निकलकर सभी कर्मो के क्लेष समूहों का नाश करनेवाले धर्म के कारण स्वरूप आर्य क्षेत्र आदि में मनुष्य जन्म प्राप्त करके पुनः (दुबारा) महामोह से मोहित (मूर्च्छित) मतिवाला वह मनुष्य विषय सुखों की अभिलाषा से ऐसे ऐसे विषम कर्म करता है कि- जिस से वह आत्मा संसार से मुक्त होने के बजाय और अधिक अधिक संसार में हि डूब जाता है... ऐसा गृहस्थ जीवन का लोकाचार है, अतः मुनि उसे अच्छी तरह से जानकर अथवा समभाव याने समता को जानकर पृथ्वीकाय आदि के आरंभ स्वरूप हिंसा शस्त्रों से निवृत्त . होता है... . यहां "लोकस्य” इस पद में सप्तमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग हुआ है... अतः लोक याने जंतुओं में समशत्रुमित्रता अथवा स्व-पर को सम जानकर... अथवा सभी एकेंद्रिय आदि जंतुगण सदा अपने हि उत्पत्तिस्थान में रमण करने की इच्छावाले होने से मरण से डरतें हैं तथा सुखों की चाहना के साथ साथ दुःखों के प्रति द्वेष करतें हैं इत्यादि स्वरूप समता को जानकर वह मुनी यहां पृथ्वीकायादि छ जीवनिकाय-लोक में द्रव्य एवं भाव भेदवाले शस्त्रारंभ से निवृत्त होकर धर्म-जागरण से जगता रहता है... अथवा तो संयम के विनाशक प्राणातिपातादि आश्रव द्वार अथवा शब्दादि पांच प्रकार के कामभोग की आसक्ति स्वरूप जो जो शस्त्र हैं, उनसे उपरत याने जो निवृत्त होता है वह मुनी है... .. तथा जो मुनी सभी प्राणीगण को इंद्रिय की प्रवृत्ति के कारण ऐसे मनोज्ञ याने अच्छे और अमनोज्ञ याने बूरे शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का विवेक-बल से तत्त्व-दर्शन करतें