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________________ 214 1 - 3 -1 - 2 (110) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन क्रिया संयम के लिए होती है और उसके साथ विवेक की चक्षु खुली होती है। संयम में तेजस्विता लाने के लिए वह सोता है। साधु तीसरे पहर के अंतभाग में निद्रा से मुक्त होवे। साधु का जीवन संयम युक्त है। उसका प्रत्येक समय संयम में बीतता है। वह दिन में या रात में, अकेले में या व्यक्तियों के समूह में, सुषुप्त अवस्था में या जाग्रत अवस्था में किसी भी तरह का पाप कर्म नहीं करता, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता एवं झूठ, स्तेय आदि दोषों का सेवन भी नहि करता / इसलिए साधु को सदा-सर्वदा जाग्रत ही कहा है। जयन्ती श्राविका के प्रश्नों का उत्तर देते हए भगवान महावीर ने अधार्मिक व्यक्तियों को सदा सुषुप्त और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को सदा जागरणशील कहा है। तथा जो मनुष्य सदा पाप एवं अधर्म में संलग्न रहते हैं, उन्हें आलसी कहा है और जो सदा धर्म में, सत्कार्य में एवं आत्मचिन्तन में संलग्न रहते हैं, उन्हें दक्ष, प्रवीण, चतुर एवं जाग्रत कहा है। भगवद्गीता में भी इसी बात को इन शब्दों में कहा गया है कि- जिसे सब लोग रात्रि समझते हैं उसमें संयमी जागता है और जब समस्त प्राणी जागते हैं तब ज्ञानवान मुनी उसे रात्रि समझकर उदासीन भाव में रहता है। तात्पर्य यह है कि- विषय-भोगों की आसक्ति हि भाव निद्रा है और उनसे विरक्ति जागरण है। अत: भोगी व्यक्ति भोगों में आसक्त होने से सदा सोए होते हैं और त्यागी व्यक्ति उनसे निवृत्त होते हैं.इसलिए वे सदा जाग्रत हि हैं / हम यों भी कह सकते हैं कि- अज्ञान हि निद्रा है और ज्ञान जागरण है। ___ अज्ञान एवं मोह के कारण ही मनुष्य भोगों में फंसता है और परिणाम स्वरूप वह अनेक दुःखों को प्राप्त करता है। किंतु यह अज्ञान एवं मोह अहितकर हैं, इस बात को जान कर उससे दूर रहने वाला व्यक्ति ही मुनि है। इस बात को अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 2 // // 110 // 1-3-1-2 लोयंसि जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए, जस्सिमे सद्दा य रूवा य रसा य गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति // 110 // II संस्कृत-छाया : लोके जानीहि अहिताय दुःखम्, समतां लोकस्य ज्ञात्वा, अत्र शस्त्रोपरतः, यस्य इमे शब्दाच रूपाश्च रसाश्च गन्धाश्च स्पर्शाश्च अभिसमन्वागताः भवन्ति // 110 // III सूत्रार्थ : यह बात समझो कि- लोक में दुःख अहित के लिये हि है... लोक में समता को
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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