________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-6-11 (108) 201 III सूत्रार्थ : * समझदार साधु को उद्देश याने उपदेश की आवश्यकता नहि है... और जो बाल याने अज्ञानी जीव है वह निह (सरागी), कामासक्त, अशांतदुःखवाले दुःखी और दुःखों के हि आवर्तों में परिभ्रमणा करतें हैं... ऐसा मैं (सुधर्मास्वामी) हे जंबू ! तुम्हे कहता हुं // 108 // IV टीका-अनुवाद : नारक आदि के दुःखो के कारण कर्म है इत्यादि उद्देश याने उपदेश की आवश्यकता पश्यक याने परमार्थ दृष्टिवाले साधुओं को नहि है... इत्यादि तथा बाल याने अज्ञानी जीव निह याने हिंसावाले, अथवा स्निग्ध याने रागवाले, कामभोग की इच्छावाले, अशांतदुःखवाले, दु:खी और दुःखों के हि आवत्र्तों में परिभ्रमणा करतें हैं इत्यादि... आक्षेप याने प्रश्न और परिहार याने उत्तर पूर्ववत् हि समझीयेगा... “इति" शब्द समाप्ति सूचक है और “ब्रवीमि" पद पूर्व की तरह जानीयेगा... यहां इस छठे उद्देशक की परिसमाप्ति में सूत्रानुगम पूर्ण हुआ.. तथा सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेप भी पूर्ण हुआ... और सूत्र स्पर्शिनियुक्ति भी पूर्ण हुइ... . अब नैगम आदि नय कहते हैं... किंतु वे अन्य जगह विस्तार से कह चूकें हैं, अत: यहां हम नहिं कहतें हैं... तो भी संक्षेप से कहते हैं कि- सातों नय ज्ञाननय एवं क्रियानय के अंतर्गत हो जातें हैं अत: इन दो नयों को हि यहां कहतें हैं... इन दो नयों में भी परस्पर पक्ष की सापेक्षता होने से, निरपेक्ष ऐसे एक एक नय मोक्ष का कारण न हो पाने के कारण से मिथ्या हि है... अत: अंधे और पंगु याने लंगडे मनुष्य की तरह परस्पर सापेक्ष नय भाव से हि इष्टकार्य याने मोक्ष पद की प्राप्ति होती है ऐसा समझीयेगा... ऐसा यहां सूत्रकार का कथन जानने में आता है... और यह हि यहां रहस्य है... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में स्पष्ट कर दिया है, कि- जो यथार्थ द्रष्टा है, तत्त्वज्ञ है उसे उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती; क्योंकि- वह अपने कर्तव्य को जानता है और अपने संयम पथ पर सम्यक्तया गति कर रहा है। इसलिए वह संसार सागर से पार होने में समर्थ है। संसार सागर को पार करने के लिए ज्ञान और क्रिया आवश्यक हैं। इनकी समन्वित साधना से ही साधु अपने साध्य को सिद्ध कर सकता है। इसलिए निर्वाण पद को पाने के लिए ज्ञान और चारित्र दोनों को स्वीकार करना जरूरी है। प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य यही है, कि- कषाय, राग-द्वेष एवं विषय-वासना में आसक्त व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं, कि