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________________ 200 1 -2-6 - 11 (108) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करें... सर्वशः याने सभी प्रकार से अर्थात् तीन योग और तीन करण से याने मन-वचनकाया से करण-करावण और अनुमोदन प्रकार से लोकसंज्ञा का त्याग करें... इस प्रकार पूर्व कहे गये यथोक्तगुणवाले, धर्मकथाविधिज्ञ, बद्ध प्रतिमोचक, कर्मोद्घातन-खेदज्ञ, बंध और मोक्ष का अन्वेषक, सन्मार्ग में रहे हुए, कुमार्ग का त्याग करनेवाले, हिंसादि अट्ठारह पाप स्थानकों के त्यागी एवं लोकसंज्ञा को जाननेवाले साधु को क्या लाभ होता है ? यह बात अब इस उद्देशक के अंतिम सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : संसार का कारण कर्म है और उनसे सदा मुक्त होना यह साधक का उद्देश्य है, लक्ष्य है। इसलिए वह मुनि कुशल कहा गया है, कि- जो संयम साधना के द्वारा कर्मों को क्षय करने का प्रयत्न करता है। वह प्रबुद्ध साधक मिथ्यात्व, अविरति आदि दोषों से दूर रहता है, और वह साधु पंचाचार का पालन करता हुआ अनाचीर्ण का त्याग करता है... .. 'छणं-छणं' शब्द का अर्थ है-हिंसा। अत: मुनि हिंसा का त्याग कर के संयम साधना में प्रवृत्त होता है। उसके लिए वह लोक संज्ञा आदि का भी त्याग कर देता है। लौकिक भोगोपभोग एवं परिग्रह का त्याग कर देने पर ही वह आत्म सुख का अनुभव कर सकता है। इससे स्पष्ट हुआ कि- कर्मों को क्षय करने के लिए हिंसा आदि दोषों एवं अनाचरणीय क्रियाओं का त्याग करके जो शुद्ध संयम में प्रवृत्ति करता है, वह साधु अपना आत्म विकास करते हुए दूसरे को भी यथार्थ मार्ग बताता है। वस्तुत: उपदेश की किसको आवश्यकता होती है और संसार में कौन परिभ्रमण करता है ? इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 11 // // 108 // 1-2-6-11 उद्देसो पासगस्स नत्थि, बाले पुणो निहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी, दुक्खाणमेव आवर्ट अनुपरियट्टइ त्ति बेमि // 108 // II संस्कृत-छाया : उद्देशः पश्यकस्य नास्ति, बालः पुनः निहः (स्निग्धः) कामसमनुज्ञः अशमितदुःखः दुःखी दुःखानामेव आवर्त अनुपरिवर्त्तते इति ब्रवीमि // 108 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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