________________ 202 1 - 2 - 6 - 11 (108) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन कषाय, राग-द्वेष एवं विषय वासना ही संसार है। क्योंकि- संसार का मूलाधार ये ही हैं। इनमें आसक्त रहने वाला व्यक्ति ही संसार में घूमता है। अत: इनका त्याग करना, विषय-वासना में प्रवृत्त योगों को उस ओर से रोक कर संयम में लगाना, यही संसार से मुक्त होने का उपाय है और यह हि लोक पर विजय प्राप्त करना है। जो व्यक्ति काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि अंतरंग शत्रुओं को जीत लेता है, उसके लिए अब कुछ भी जीतना शेष नहीं रहता। लोक में उसका कोई शत्रु नहीं है। संपूर्ण लोक-संसार उसका अनुचर-सेवक बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है, कि- विषय-वासना की आसक्ति का त्याग करने वाला जीव हि अनन्त सुख को प्राप्त करता है। उसमें आसक्त रहने वाला व्यक्ति असीम दुःखों को प्राप्त करता है। उसके दु:खों का कभी भी अन्त नहीं आता। अत: मुमुक्षु पुरुष को विषयों में आसक्त न होकर, संयम साधना में संलग्न रहना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझीयेगा। // इति द्वितीयाध्ययने षष्ठः उद्देशकः समाप्तः // इति लोकविजयाभिधं द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् 卐卐卐 .. : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष निर्माता भट्टारकाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न विद्वद्वरेण्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्रकोषके संपादक श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न, दिव्यकृपादृष्टिपात्र, मालवरत्न, आगम मर्मज्ञ, श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम प्रकाशन के लिये राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका के लेखक मुनिप्रवर ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभविजयजी म. "श्रमण" के द्वारा लिखित एवं पंडितवर्य लीलाधरात्मज रमेशचंद्र हरिया के द्वारा संपादित सटीक आचारांग सूत्र के भावानुवाद स्वरूप श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी हिंदी टीका-ग्रंथ के अध्ययनसे विश्वके सभी जीव पंचाचारकी दिव्य सुवासको प्राप्त करके परमपदकी पात्रता को प्राप्त करें... यही मंगल भावना के साथ... "शिवमस्तु सर्वजगतः” वीर निर्वाण सं. 2528. राजेन्द्र सं. 96. / विक्रम सं. 2058.