________________ 192 1 -2-6-9 (106) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन प्रदेशबन्ध। इनके स्वरूप को समझने से कर्म का स्वरूप भलीभांति समझ में आ जाता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अनन्नदंसी और अनन्नारामे' पाठ की व्याख्या इस प्रकार की गई है- “अन्यद्रष्टुं शीलमस्येत्यन्यदर्शी तथा नासावनन्यदर्शी इति अनन्यदर्शी अर्थात् - यथावस्थितपदार्थद्रष्टा, कश्चैवंभूतो ? यः सम्यग्दृष्टिः मौनीन्द्रप्रवचनाविर्भूततत्त्वार्थः, यश्चानन्यदृष्टि: सोऽनन्याराम:-मोक्षमार्गादन्यत्र न रमते।" अर्थात् जो व्यक्ति यथार्थ द्रष्टा होता है, वह जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित सिद्धांत के अतिरिक्त अन्यत्र रमण नहीं करता और जो अपने चिन्तनमनन, विचारणा एवं आचरण को अन्यत्र नहीं लगाता वही तत्त्वदर्शी है, परमार्थदर्शी है। और ऐसे ही तत्त्वदर्शी पुरुष तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित मोक्ष मार्ग का पथ बता सकते हैं, यथार्थ उपदेश दे सकते हैं। क्योंकि- उनके उपदेश में समभाव की प्रमुखता रहती है। वे महापुरुष समदर्शी होते है। उनके मन में धनी, निर्धन का, पापी-धर्मी का कोई भेद नहीं होता। उनका ज्ञानप्रकाश उनकी उपदेश धारा किसी व्यक्ति विशेष, जाति विशेष, संप्रदाय विशेष, वर्ग विशेष के बन्धनों से आबद्ध नहीं होती। वे जिस विशुद्ध भाव से एक ऐश्वर्य सम्पन्न व्यक्ति को उपदेश देते हैं, उसी भाव से दीन-दरिद्रों को भी देते हैं। और जिस अनुग्रह भाव से निर्धन को उपदेश देते हैं, उसी भाव से धनीकों को भी उपदेश देते हैं। ऐसा नहीं कि- गरीब को जो कुछ मन में आया, वह कह दिया और सेठ जी के आते ही जरा व्यवस्थित बातें बनाने लगे। आगम में अनाथी मुनि का उदाहरण आता है। वे उस युग के एक महान् ऐश्वर्य सम्पन्न एवं शक्तिशाली सम्राट श्रेणिक को भी अनाथ कहते हुए नहीं हिचकिचाते किंतु निर्भयता के साथ राजा श्रेणिक की अनाथता को सिद्ध कर देते है। और उस अनाथता की बात को राजा श्रेणिक स्वयं स्वीकार कर लेता है। उस महामनि ने समस्त धनिकों के धन-सम्पत्ति और राजाओं के ऐश्वर्य एवं सैनिक शक्ति के मिथ्याभिमान एवं अहंकार को निर्मूल कर दिया था। अतः कहने का तात्पर्य यह है कि- भव्य प्राणियों को सन्मार्ग पर लाने के लिए वे यथार्थ द्रष्टा मुनी कभी भी छोटे-बड़े का भेद नहीं करते। वे सभी जिज्ञासुओं को समान भाव से उपदेश देते हैं। उपदेष्टा को सभी जीवों के प्रति समभाव रखना चाहिए, साधु के मन में भेद भाव नहीं होना चाहिए। तथा परिषद् अर्थात् श्रोताओं की योग्यता परिस्थिति एवं वहां के देश काल का भी ज्ञान होना चाहिए। यदि उसे इन बातों का पूरा-पूरा बोध नहीं है, तो उससे अहित होने की भी संभावना हो सकती है। अत: उपदेष्टा कैसा होना चाहिए, और अनर्थ-उपद्रव कैसे आ शकता है, यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 9 // // 106 // 1-2-6-9 / अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थं पि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ? एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ