________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-6-8 (105) 191 हो उसे तत्त्व- की गंभीर बातें कहें और जो अल्पमतिवाले हैं उन्हें सामान्य कथा-दृष्टांत से उपदेश दें... तथा राजा को उपदेश देते समय उनके अभिप्राय याने विचार को जान-समझकर हि कहें... जैसे कि- क्या यह राजा अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है कि- अनभिगृहीत या सांशयिक मिथ्यादृष्टि है ? तथा अभिगृहीतमिथ्यादृष्टि हो तो भी, क्या वह कुतीर्थिकों से व्युग्राहित है ? या अपने आप हि... इत्यादि बातें वार्तालाप के द्वारा जान-समझकर उपदेश दें... ऐसे उस राजा को उचित धर्मोपदेश देने पर भी यदि अशुभ कर्मो के उदय में कदाचित् वह राजा द्वेष करे... अब द्वेषवाला वंह राजा क्या क्या अनर्थ-उपद्रव करे, वह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है, कि- जो साधु कुशल-बुद्धिमान है, वह संसार में उपलब्ध होने वाले दुःखों के कारण को जानकर उस मार्ग का परित्याग कर देता है। इस प्रकार वह दुःखों एवं कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर ऐसे व्यक्ति का मन संसार में नहीं लगता। वह संसार से ऊपर उठ जाता है। इसी बात को सूत्रकार ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, कि- “जो अनन्यदर्शी है वह अनन्याराम है और जो अनन्याराम है वह अनन्यदर्शी है।" इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है, कि- जो यथार्थ द्रष्टा है-संसार एवं आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानता-पहचानता है, वह मोक्ष मार्ग से अन्यत्र गति नहीं करता। क्योंकि- उसका लक्ष्य, उसका ध्येय आत्मा को समस्त कर्म बन्धनों से मुक्त-उन्मक्त करना है। इसलिए उसके पग उसी मोक्षपथ पर ही उठेंगे। जिसके पग उस मोक्ष-पथ पर बढ़ रहे हैं तो समझना चाहिए कि- वह यथार्थ द्रष्टा है। इससे यह बात सिद्ध की है, कि- सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र का समन्वय ही मोक्ष मार्ग है। उक्त त्रिपथ की समन्वित साधना से ही आत्मा समस्त दुःखों से सर्वथा छुटकारा पा सकता है। यह ठीक है कि- इस सूत्र में दर्शन और चारित्राचार का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। परन्तु ज्ञान और दर्शन दोनों सहभावी है। क्योंकि- ज्ञान के बिना दर्शन, और दर्शन के बिन ज्ञान का अस्तित्व नहीं रहता है। इसलिए 'अनन्यदर्शी और अनन्याराम' के द्वारा ज्ञान, दर्शन, और चारित्र की समन्वित साधना से ही निर्वाण पद बताया गया है। इसलिए साधु के लिए यह आवश्यक है, कि- वह पहिले कर्मों के स्वरूप को जाने। कयोंकि- दु:ख के मूल कारण कर्म ही है। अत: उनके स्वरूप का बोध हुए बिमा उनका त्याग कर शकना कठिन है। यहां यह प्रश्न हो सकता है, कि- कर्मों का संपूर्ण स्वरूप किस प्रकार जाना जाए ? इसके लिए आगम में बताया गया है कि-कर्म की मूल प्रकृतियां आठ हैं। और उनका चार प्रकार से बन्ध होता है-१-प्रकृतिबन्ध, २-स्थितिबन्धः, ३-अनुभागबन्ध और 4