________________ 1901 -2-6- 8 (105) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन द्वारों का तीन योग याने मन वचन एवं काया तथा तीन करण याने करण करावण और अनुमोदन ऐसे योगत्रिक एवं करणत्रिक से त्याग करतें हैं... अथवा सर्व प्रकार से कर्मो को जानकर जिज्ञासु लोगों को कहते हैं... सर्व प्रकार का ज्ञान केवलज्ञानी को या गणधरों को या चौदपूर्वीओं को होता है... अथवा सर्व प्रकार से याने आक्षेपिणी आदि चार प्रकारकी धर्मकथाओं के द्वारा कहतें हैं... आक्षेपिणी विक्षेपिणी संवेदनी एवं निर्वेदनी इत्यादि चार प्रकार की कथा से धर्म कहतें हैं... तथा अनन्यदर्शी याने जैसा है वैसा हि पदार्थों को देखनेवाला... अर्थात् सम्यग्दृष्टि ऐसा वह मुनी जिनप्रवचन के तत्त्वार्थ को प्रगट करनेवाला है... अत: जो मुनी अनन्यदर्शी (दृष्टि) है वह अनन्याराम होता है... अनन्याराम याने मोक्षमार्ग में हि रमण करनेवाला... यहां हेतु और हेतुमद् भाव से सूत्र लगाते हुए कहते हैं, कि- जो मुनी परमात्मा के उपदेश में हि रमण करतें हैं वे मुनी अनन्यदर्शी हि होते हैं... और जो मुनी अनन्यदर्शी होते हैं वे मोक्षमार्ग के सिवा और कहिं मन नहि लगातें, ____ कहा भी है कि- वैशेषिक, षष्टितंत्र और बौद्धों के कुशास्त्रों का कल्याण हो... क्योंकिउनके शास्त्रों में रहे हुए दोषों के कारण से हि हमारा चित्त परमात्मा की और अनुरागी बनता है... इत्यादि... इस प्रकार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा... अब उपदेश देनेवाला मुनि राग और द्वेष को दूर करके धर्मकथा कहे... जैसे कि- तीर्थंकर, गणधर एवं स्थविर आचार्यों ने पुन्यवान् याने इंद्र, देव, चक्रवर्ती, मांडलिक राजा आदि को जिस प्रकार से उपदेश दीया है, उसी प्रकार से हि तुच्छ याने दरिद्र कठियारा आदि को भी उपदेश देते हैं... अथवा पूर्ण याने उत्तम जाति, कुल, रूप, आदि से युक्त और तुच्छ याने अधम जाति आदि वाले लोग... अथवा पूर्ण याने समझदार और तुच्छ याने अज्ञानी लोग... कहा भी है कि- उत्तम ज्ञान, ऐश्वर्य, धन, जाति, कुल-वंश, आदिवाले तथा तेजस्वी और बुद्धिशाली लोग “पूर्ण' हैं और उनसे विपरीत जो लोग हैं वे "तुच्छ” हैं... ___ यहां सारांश यह है कि- जिस प्रकार द्रमक-दरिद्र आदि को कुछ भी बदला लेने के भाव बिना मात्र एक उपकार की बुद्धि से उपदेश देते हैं, वैसा हि चक्रवर्ती आदि धनिकों को भी उपदेश देते हैं अथवा तो- जिस प्रकार चक्रवर्ती आदि धनिकों को आदर-भाव के साथ संसार से पार पाने का उपदेश दतें हैं, वैसा हि दरिद्रों को भी उपदेश देते हैं... यहां निरीहता याने प्रतिफल की अपेक्षा न रखना यही सारांश है... किंतु ऐसा भी कोइ नियम नहि है कि- जिज्ञासुओं के भागों को देखे बिना एक हि प्रकार से उपदेश देना... परंतु जो जीव जिस प्रकार से बोध पा शके उसी प्रकार से उसे बोध देना... अर्थात् जो समझदार बुद्धिशाली