________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-6 - 9 (106) 193 सव्वपरिण्णाचारी न लिप्पइ छणपएण, वीरे, से मेहावी अणुग्घायणखेयण्णे, जे य बंधपमुक्खमण्णेसी कुसले पुण नो बद्धे नो मुक्के // 106 // II संस्कृत-छाया : अपि च हन्यात् अनाद्रियमानः, अत्राऽपि जानीहि श्रेयः इति नाऽस्ति, कोऽयं पुरुषः ? कं च नतः ? एष: वीरः प्रशंसितः, यः बद्धान् प्रति मोचयति, ऊर्ध्व-अध:तिर्यक्-दिक्षु, सः सर्वतः सर्वपरिज्ञाचारी न लिप्यते, क्षणपदेन, वीरः सः मेधावी अनुरातन-खेदज्ञः, यश्च बन्धप्रमोक्षान्वेषी कुशल: पुन: न बद्धः न मुक्तः // 106 // III सूत्रार्थ : कभी अनादर से वह रुष्ट राजा वध करे... “यहां भी श्रेय: नहि है" ऐसा जानो... यह कौन पुरुष है ? किसको नमस्कार करता है ? यह वीर प्रशंसित है, कि- जो उपर नीचे एवं तिरछी दिशाओं में बंधे हुए जीवों को मुक्त करते हैं... तथा सर्व प्रकार से सर्वपरिज्ञाचारी ऐसा यह मुनी हिंसा के पापों से लिप्त होता नहि है... एवं कर्मो के विनाश में निपुण तथा कर्मो के बंधन से छुटने के उपायों को शोधनेवाला कुशल मुनी मोह-ममता का विच्छेद होने से बद्ध नहि है, तथा सत्तागतकर्मो का उदय अभी भी है अतः मुक्त भी नहि है // 106 // IV टीका-अनुवाद : . वह राजा अनादर के कारण से वाणी से तर्जना करे एवं क्रोध के कारण से दंड एवं चाबुक आदि से मारे... कहा भी है कि- वहां उपदेश-सभा पर हि क्रुद्ध ऐसा वह राजा उपदेश कार्य को रोक दे, रज्जु (रस्सी) से बांधे, बाहर निकाल दे, सेना-सीपाहि से सजा दिलावे या देश से हि बाहर निकाल दे... __ तथा नंद के बल से चाणक्य, बुद्ध के उत्पत्ति की कथा से भागवत, भल्लिगृह की कहानी से रौद्र, उमा के वृत्तांत से पेढालपुत्र सत्यकी... प्रद्वेष को प्राप्त हुए... अथवा तो कोइक द्रमक, काणा, कुंट, आदि लोग भी पाप-कर्म के फल कहने से गुस्से में आते हैं, द्वेष धारण करते हैं... ___ इस प्रकार अविधि से कहने में इसी जन्म में बाधा = पीडाएं होती है, और जन्मांतर में कोई विशेष अच्छा गुण-लाभ तो है हि नहिं... यह बात अब कहतें हैं कि- परहित के लिये धर्मकथा को कहनेवालों को पुन्य होता है, किंतु पर्षदा-सभा को जाने-पहचाने बिना धर्मकथा कहने से पुन्य तो नहि होता है किंतु राजा आदि वे मूढ लोग अनादर के कारण से उन धर्मकथा कहनेवालों का वध पर्यंत का कष्ट दे शकतें हैं...