________________ 188 // 1-2-6-8 (105) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन __ अब कहतें हैं कि- हां, भले ऐसा हि हो, किंतु उस उपदेश का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... V सूत्रसार : . आगम में कहा गया है कि- 'आणाए धम्मो' अर्थात् भगवान की आज्ञा में धर्म है। इस पर प्रश्न हो सकता है, कि- आज्ञा में कौन होते है ? इसी प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि- जो मोक्ष के योग्य है, वही भगवान की आज्ञा में है। मोक्ष की योग्यता सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र पर आधारित है। इससे स्पष्ट हो गया कि- जिस व्यक्ति को सम्यग् ज्ञान का आलोक नहीं, वह अज्ञान के अन्धकार में इधर-उधर भटकता फिरेगा, वह मोक्ष मार्ग पर गति नहीं कर सकेगा। क्योंकि- उसे उस मार्ग का ज्ञान ही नहीं और जब ज्ञान ही नहीं तब उस पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता इसलिए यह कहा गया, कि- सम्यग् ज्ञान से रहित व्यक्ति भगवान की आज्ञा में नहीं है और ज्ञानाभाव के कारण ही वह शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा करने में हिचकिचाता है। इसके विपरीत ज्ञानसंपन्न व्यक्ति भगवान की आज्ञा में है, क्योंकि- वह भगवान द्वारा प्ररूपित शुद्ध मार्ग पर चलने एवं उसकी प्ररूपणा करने में हिचकिचाता नहीं है। अतः भगवान की आज्ञा में प्रवर्तन करनेवाला साधु ही मोक्ष मार्ग के योग्य है। इस मार्ग को न्याय-नीतिपूर्ण मार्ग भी कहा गया है। क्योंकि- संसार संबन्ध का त्याग करने वाला मुनि ही इसे स्वीकार करता है। भव्यजीव हि मुक्ति के योग्य है। क्योंकि- 'वसु' का अर्थ द्रव्य माना है और भव्य संज्ञक जीव द्रव्य ही मुक्ति योग्य है। अतः अभव्य जीव को 'दुर्वसुमुनिः' कहा है। कारण किउस में मोक्ष जाने की योग्यता नहीं अर्थात् साधुवेश ग्रहण कर लेने पर भी मोक्ष के आधारभूत सम्यग् ज्ञान आदि का अभाव होने से वह मोक्ष के अयोग्य है। और इसी कारण वह शुद्ध मार्ग की प्ररूपणा नहीं कर सकता। इससे स्पष्ट है कि- ज्ञान युक्त व्यक्ति ही इस पथ पर चल सकता है और मोक्षमार्ग का उपदेश देकर दूसरों को भी सन्मार्ग बता सकता है। इसलिए उपदेश का भी महत्त्व माना गया है। उपदेश के महत्त्व का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... I सूत्र // 8 // // 105 // 1-2-6-8 जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं, तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इह कम्मं परिणाय सव्वसो जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से अणण्णदंसी, जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ // 105 //