________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी-हिन्दी-टीका म 1-2-6-7 (104) 187 के समान जिनेश्वरों की आज्ञा के अनुसार चलना = आचरण करना इस दुर्वसु मनुष्य के लिये अतिदुष्कर है... तथा अनुकूल एवं प्रतिकूल विविध प्रकार के उपसर्गों को सहना भी दुष्कर है, तथा उपसर्गों को सहन न करने में कर्मो का उदय भी प्रबल होता है... यहां अनादि-अतीतकाल के भोगोपभोग की भावना हि कारण है... क्योंकि- जीव स्वभाव से हि दुःखों से डरता है, और निरंतर भोगोपभोग को चाहता है, अत: भोगोपभोग का निषेध करनेवाली तीर्थंकरों की आज्ञा में जीव को दुःख होता है... कभी, कभी यथाकथंचित् भी तीर्थंकर की आज्ञा में वह दुर्वसु मनुष्य प्रवेश करता है, तब वह कैसा होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि- तुच्छ याने निर्धन-दरिद्र... अथवा द्रव्य से जल आदि से रहित घट आदि... की तरह और भाव से सम्यग्-ज्ञान आदि से रहित वह दुर्वसु आत्मा होता है... क्योंकि- किसिके पुछने पर, सम्यग् ज्ञान न होने के कारण से जवाब (उत्तर) देने में ग्लानि पाता है... तथा कोइ दुर्वसु-मुनी ज्ञानयुक्त हो किंतु चारित्र से अपूर्ण हो तब पूजा एवं सत्कार की प्राप्ति के मोह-ममत्व के कारण से शुद्ध-मोक्षमार्ग के कथन के समयं यथास्थित चारित्र के स्वरूप को कहने में ग्लानि-खेद पाता है... जैसे किसन्निधि में प्रवृत्त वह साधु, अब सन्निधि को निर्दोष कहने में प्रवृत्त होता है... इस प्रकार अन्य क्रियाओं में भी विपरीतता समझीयेगा... तथा जो मुनी कषाय रूप महाविष के अगद = औषध तुल्य परमात्मा की आज्ञानुसार संयम-जीवन धारण करता है वह सुवसु मुनी है... ऐसा मुनी सम्यग् दर्शन-ज्ञान एवं चारित्र से यथावस्थित. वस्तु के ज्ञान एवं आचरण से युक्त होने से कहिं भी उत्तर देने में खेद-ग्लानि को प्राप्त नहि करता... ऐसा ज्ञानादि से युक्त एवं यथावस्थित मोक्षमार्ग को कहनेवाला मुनी कर्मो का विनाश करता है अत: यह वीर है, एवं विद्वानों से प्रशंसित है... ऐसा परमात्मा की आज्ञानुसार आचरणवाला वीर मुनी लोकसंयोग का त्याग करता है... लोक याने असंयतलोक और संयोग याने ममत्ववाला संबंध... अथवा लोक के दो भेद है 1. बाह्यलोक एवं 2. अभ्यंतर लोक... उनमें बाह्यलोक याने धन-धान्य-हिरण्य-सुवर्णमात-पिता-पुत्र-परिवार आदि... तथा अभ्यंतर लोक = याने-राग-द्वेष आदि... अथवा राग एवं द्वेष का कार्य याने आठ प्रकार का कर्म... इन दोनों प्रकार के लोक के संयोगों को जो अतिक्रमण करता है, वह हि सुवसु वीर मुनी है... इस प्रकार लोकसंयोग का त्याग हि मुमुक्षुओं के लिये न्याय अर्थात् सन्मार्ग है... आचार है... अथवा लोक संयोग का त्याग करनेवाला हि मुनी अन्य आत्माओं को सदुपदेश के द्वारा मोक्ष प्राप्त करवाता है...