________________ 182 1-2-6-5/6 (102-103) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन याने भीषण बम वर्षा में भी अपने मार्ग को छोड़कर नहीं भागता; किंतु शत्रु को परास्त करके शत्रुका हि विनाश करता है। इसी प्रकार विषय-वासना एवं कषायों के प्रबल वातावरण में भी जो विचलित होता नही, उसे ही वीर कहा गया है। अतः ऐसे संयमनिष्ठ साधक का बारबार वीर... वीर... शब्द का प्रयोग करके आदर-सत्कार किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'दिट्ठपहे' पद भी इसी अर्थ को परिपुष्ट करता है। दृष्टो ज्ञानादि को मोक्षपथो येन स दृष्टपथः अर्थात् जिस व्यक्ति ने ज्ञानादि रूप मोक्ष-मार्ग को सम्यक्तया देख लिया है, उस मुनि को दृष्टपथ कहा गया है। यदि इस पद को 'दृष्ट भय' पढ़ा जाए तो इसका अर्थ होगा-सात भय का परिज्ञान करके उनकी उत्पत्ति के मूल कारण प्ररिग्रह का उस साधु ने त्याग कर दिया है। 'मइमं' का अर्थ है-बुद्धिमान् ! अर्थात् जिसमें सत्-असत् को समझने की बुद्धि है। इससे यह सिद्ध होता है कि- विचारशील एवं विवेकवान व्यक्ति संयम से प्रतिकूल परिस्थितियां एवं वातावरण के उपस्थित होने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं होता, वह समस्त विकारों पर विजय पा लेता है, इसलिए उसे वीर शब्द से संबोधित किया गया है। 'वीर' शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ यह है “विशेषेणेरयति-प्रेरयति अष्ट प्रकार कारिषड्वर्ग वेति वीरः" अर्थात् जो आठ प्रकार के कर्मों को आत्मा से सर्वथा पृथक् करता है अथवा काम-क्रोध आदि 6 आंतरिक शत्रुओं को परास्त करता है वह वीर है... इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि- वीर पुरुष ही निर्वाण पद को प्राप्त कर सकता है। सूत्र // 5-6 // // 102-103 // 1-2-6-5/6 सद्दे फासे अहियासमाणे निविंद नंदिं च इह जीवियस्स। मुणी मोणं समायाय धुणे कम्मसरीरगं... // 102 // पंतं लूहं सेवंति वीरा संमत्त दंसिणो। एस ओहंतरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिये तिबेमि // 103 // II संस्कृत-छाया : शब्दान् स्पर्शान् सम्यक् सहमानः निर्विन्दस्व नन्दी च इह जीवितस्य / मुनिः मौनं समादाय, धुनीयात् कर्मशरीरकम्... प्रान्तं, रूक्षं सेवन्ते, वीराः समत्वदर्शिनः / एष: ओघं तरेत् मुनिः, तीर्णः मुक्तः विरत: विख्यातः इति ब्रवीमि // 102-103 // . III सूत्रार्थ : शब्द और स्पर्श को सम्यक् सहन करनेवाला हे मुनी ! शब्दादि में निर्वेद करो और