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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-6- 3/4 (100-101) 181 और शब्दादि विषयों में रति, इन दोनों में मन नहि देनेवाला मुनी शब्दादि विषयों में राग नहि करता... इस प्रकार रति और अरति के त्याग से विमनस्क हुआ वीर मुनी शब्दादि विषय समूह में गृद्धि = आसक्ति नहि करतें... अरति एवं रति के त्यागी ऐसे उस वीर मुनिराज को कौन सा शुभ-फल मिलता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : मुनि के लिए यह आवश्यक है कि- वह परिग्रह का सर्वथा त्याग करे। पूर्ण अपरिग्रही व्यक्ति ही मुनित्व का स्वीकार कर सकते हैं। पूर्ण अपरिग्रही बनने के लिए केवल बाह्य पदार्थों का त्याग करना ही पर्याप्त नहीं है, किंतु उनकी ममता, आसक्ति एवं मूर्छा का परित्याग करना भी आवश्यक है। हम यों भी कह सकते हैं कि- ममत्व का त्याग करने पर ही व्यक्ति अपरिग्रह भाव की और आगे बढ़ सकता है। जब तक पदार्थों की लालसा, भोगेच्छा एवं आसक्ति मन में विद्यमानरही है, तब तक बाह्य पदार्थों का त्याग कर देने पर भी उसे अपरिग्रही या त्यागी नहीं कहा जा शकता... आगम में स्पष्ट शब्दों में कहा हैं कि- “जो साधक वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, पुष्पमाला, आभूषण, स्त्री आदि का उपभोग करने में स्वतंत्र नहीं है या उसे यह भोगोपभोग के साधन उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसके मन में भोगेच्छा है तो वह त्यागी नहीं कहा जा सकता है। त्यागी वह कहला सकता है, कि- जो मनोहर एवं प्रियकारी प्राप्त भोगों को भोगने में स्वतंत्र एवं समर्थ होते हुए भी उनका एवं उनकी वासना का त्याग कर देता है" - इससे स्पष्ट होता है कि- आसक्ति का त्याग करने वाला व्यक्ति ही परिग्रह का त्याग कर सकता है। अत: साधु के लिए यह आवश्यक है, कि- वह पहिले आसक्ति के कारणों का परिज्ञान करे। क्योंकि- गृहस्थों से प्राप्त होनेवाले आहार, वस्त्र आदि भोग्य पदार्थों की इच्छा-आकांक्षा साधु के मन में हो है। अतः मुनि को लोकसंज्ञा का परित्याग करके संयम में संलग्न रहना चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित गाथा के चारों पदों में 'वीर' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि- संयम साधना में अरति का, एवं असंयम में रति का, तथा मन में अमध्यस्थ भाव का, और शब्दादि विषयों में आसक्ति उत्पन्न होने का, प्रसंग उपस्थित होने पर भी जो साधु अपने मन को, विचार को एवं आत्मा को उस प्रवाह में नहीं बहने देता, वही वास्तव में वीर है। योद्धा का वीरत्व तब माना जाता है कि- जब वह बलवान शत्रु के बाणों के प्रहार
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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