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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-5-10(97) // 169 कार्य अन्यने नहिं कीया वह, मैं करूंगा, ऐसा मानता हुआ वह साधु प्राणीओं के वध आदि में प्रवृत्त होता है, अत: ऐसे कार्यों से साधु को कर्मबंध होता है... अतः जो साधु इस प्रकार कामचिकित्सा का उपदेश देता है, तथा जिसको उपदेश दीया जाता है, उन दोनों को यह अपथ्य है अतः अकार्य है... यह बात अब कहते हैं... वह साधु जिस किसी को ऐसी कामचिकित्सा जब करता है, तब उन दोनों को, कर्ता एवं करानेवाले को दोनों को हिंसा आदि प्राणीवध का पाप होता है, इसीलिये कहते हैं कि- बाल याने अज्ञानी के संग से कोइ आत्मिक लाभ नहिं है, मात्र कर्मबंध हि होता है... अतः जो ऐसी चिकित्सा करवाता है ऐसे उस बाल = अज्ञ से भी दूर रहें... जो साधु तत्त्व को जानते हैं वे ऐसी कामचिकित्सा का उपदेश नहिं करतें, और रोग की चिकित्सा भी नहि करतें... क्यों कि- इस प्रकार प्राणीओं को पीडा होनेवाली चिकित्सा का उपदेश या चिकित्सा करना, संसार के स्वरूप को जाननेवाले अनगार-साधु का कल्प नहि है... और जो साधु कामचिकित्सा या व्याधिचिकित्सा जीव वध के द्वारा करते हैं वे तत्त्व को नहि जानने के कारण से बाल याने अज्ञानी है अत: उनका वचन आदरणीय नहि है... "इति" समाप्ति सूचक है और ब्रवीमि याने मैं (सुधर्मास्वामी) हे जम्बू ! तुम्हें कहता हुं... v. सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में साधु को काम चिकित्सा एवं रोग चिकित्सा करने का निषेध किया गया है। क्योंकि- उक्त चिकित्साओं में अनेक जीवों की हिंसा होती है, अत: साधक को सावध चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। काम चिकित्सा का वात्स्यायन सूत्र में विस्तृत विवेचन किया गया है। उसमें कामसेवन के विविध आसनों, प्रकाम भोजन एवं पौष्टिक ओषधियों का उल्लेख किया गया है। इससे काम-वासना उद्दीप्त होती है और मनुष्य भोगोपभोग की ओर प्रवृत्त होता है। वस्तुतः यह काम की चिकित्सा नहीं है, किंतु काम-वासना को अत्यधिक बढाने वाली है। . चिकित्सा का अर्थ है- औषध आदि प्रयोगों से रोग का उपशमन या नाश करना। काम भी एक रोग है और इसका मूल है मोहनीय कर्म। अत: पंचाचार के द्वारा मोह कर्म का उपशमन करना या क्षय करना हि वास्तव में काम चिकित्सा है। क्योंकि- मोहनीय कर्म संसार में परिभ्रमण कराने वाला है। अतः मोहनीय कर्म का क्षय होने से हि आत्मा कामवासना से मुक्त अर्थात् अकामी होता है... रोग चिकित्सा में जडी-बूटी आदि से तथा स्वर्ण भस्म आदि रासायनिक औषधों को बनाने की विधि बताने में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस जीवों की हिंसा होती
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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