________________ 1701 - 2-5 - 10 (97) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन है। और आध्यात्मिक चिन्तन में भी विघ्न उपस्थित होता है। क्योंकि- रोगी रात-दिन उसे घेरे रहेंगे, 'अतः वह अपनी संयम-साधना नहीं कर सकेगा तथा चिकित्सा कारण गृहस्थों से घनिष्ट परिचय बढने से अन्य दोषों में भी प्रवृत्त होना सम्भव है। इसलिए साधु को काम चिकित्सा के एवं व्याधि चिकित्सा में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए और ऐसी चिकित्सा करने वाले बाल-अज्ञानी व्यक्तियों का संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। यहां यह प्रश्न हो सकता है कि- अपने शरीर में जब कभी कामवासना या विषम रोग उत्पन्न हो जाए उस समय साधु क्या करे ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि- आगमों में बताई गई निर्दोष तपश्चर्या आतापना स्वाध्याय, ध्यान एवं सेवाशुश्रूषा की विधि को स्वीकार करके काम-वासना एवं विषम रोगों पर विजय प्राप्त करे अर्थात् काम एवं रोगों के मूल मोह को उन्मूलन करने का प्रयत्न करे। यद्यपि विषम रोग को उपशांत करने के लिए साधु अपनी शास्त्र मर्यादा के अनुसार गुरुजनों के आदेश से निर्दोष चिकित्सा कर भी सकता है या दूसरे से करवा भी सकता है। साधु निर्दोष औषध ग्रहण कर सकता है। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में यह बताया गया है कि- साधु को सदोष आहार एवं वस्त्र-पात्र, वसति-स्थानादि का स्वीकार नहीं करना चाहिए और निर्दोष आहारादि भी मर्यादा से अधिक न लें... और ग्रहण कीये हुए उन आहारादि में आसक्ति एवं ममत्व भाव न रखे। तथा जिस किसीके भी के संसर्ग से काम की वासना एवं हिंसा की प्रवृत्ति के भावों को उत्तेजना मिलने की संभावना हो, उनका संसर्ग भी नहीं करना चाहिए। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि- साधक को आहार, उपधि सम्बन्धी सदोषता, आसक्ति एवं भोगेच्छा का सर्वथा त्याग करके निर्विकार एवं निर्दोष भाव से संयम साधना मे संलग्न रहना चाहिए। 'त्तिबेमि' का अर्थ पूर्ववत् समझें। // द्वितीयाध्ययने पञ्चमः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी, एवं श्री विद्याचंद्रसूरिजी के समाधि मंदिर की शीतल छत्र छायामें शासननायक चौबीसवे तीर्थंकर परमात्मा श्री वर्धमान स्वामीजी की पाट-परंपरामें सौधर्म बृहत् तपागच्छ