________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-5-9 (96) 165 शकता... वर्तमानकाल समय मात्र का होने से अति सूक्ष्म है, अत: वर्तमानकाल का व्यवहार न करते हुए यह मनुष्य भूतकाल और भविष्यकाल की चिंता से पीडित होता हुआ कहिं भी स्वस्थता को नहि पा शकता... कहा भी है कि- आज मैंने यह कार्य कीया... और कल मैं यह अन्य कार्य करुंगा... इत्यादि कार्यों की चिंता करनेवाला मनुष्य जन्मांतर को जान नहि शकता... अर्थात् “जन्मांतर के लिये कुछ न कुछ पुण्योपार्जन करूं" ऐसा समझता नहिं है... यहां दधिघटिकाद्रमकदृष्टांत = दहिं के घडेवाले द्रमक का दृष्टांत इस प्रकार हैं... कोइ एक द्रमक (दरिद्र भिक्षुक) कहिं महिषी याने भेंसो के रक्षण का कार्य करने से दुध प्राप्त होने पर, उस दुध का दहिं बनाकर मस्तक पर रखकर खडा-खडा सोचता है कि- मुझे इस दहिं से घी की प्राप्ति होगी और क्रमश: पत्नी और पुत्र आदि की प्राप्ति होगी... और जब पत्नी से झगडा होगा तब इस प्रकार लात (पाद प्रहार) मारुंगा... ऐसा सोचते हुए उस द्रमकने पाद प्रहार कीया तब वह दहि का घडा तुट गया... दहिं सब बिखर गया... इस प्रकार के चिंतामनोरथ से व्याकुल मनवाला वह द्रमक उस दहिं को लेने के लिये शिरोबंधन के वस्त्र को लेने की चेष्टा करता हुआ मस्तक को नमाया तब दहि का मटका = घडा गिरकर तुट गया... इस प्रकार- न तो उस द्रमक ने दहिं खाया और न तो पुन्य के लिये किसी को दानमें दीया... इस प्रकार... यह संसारी प्राणी भी कर्त्तव्यमूढ होकर निष्फल कार्यों को करता रहता .. अथवा जहां प्राणी कसा जाता है, वह कास याने संसार... उस संसार में जो घुमता है वह कासंकष याने संसारी विषयभोगाभिलाषी प्राणी... अथवा ज्ञानादि में प्रमादवाला वह मनुष्य अतिशय मायावाला होता है... कषायों से हि प्राणी का संकष होता है... अत: यह मनुष्य क्रोधी, मानी, मायी और लोभी होता है... तथा कीये हुए पापकर्मो से मूढ यह मनुष्य कर्तव्यमूढ होकर, चाहता है सुख, किंतु दु:खों को हि प्राप्त करता है... कहा भी है किकृपण - रांक-मनुष्य मम्मण श्रेष्ठी की तरह शयन के समय सो नहि शकता, स्नान करने के समय स्नान नहिं कर पाता और भोजन के समय स्वस्थता से भोजन भी नहिं कर शकता है... यहां मम्मण शेठ का दृष्टांत जीनीयेगा... - इस प्रकार कासंकष, बहुमायी और कृतमूढ यह प्राणी ऐसे कार्य करता है कि- जिससे वह अपने हि आत्मा के वेर-भाव को बढाता है... कहते हैं कि- अन्य को ठगने की बुद्धि से मायावी मनुष्य बार बार ऐसा आचरण करता है कि- जिससे वह अपने आत्मा को हि ठगता है... अथवा वह लोभ करता है अर्थात् लोभ-कषाय के कर्मों का बंध करता है, जिस से सेंकडों जन्मो में वैर की परंपरा बढती रहती है... कहा भी है कि- दुःखों से पीडित प्राणी कामभोग का सेवन करता है, किंतु सेवन कीये हुए वे कामभोग हि उस को दुःख देनेवाले होते हैं... अतः हे मानव ! यदि तुझे दुःख प्रिय नहि है, तो उन कामभोगो के रस (इच्छा)