________________ 166 // 1-2-5-9 (96) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन का त्याग कर... अब यहां प्रश्न यह होता है कि- ऐसा वह कौन मनुष्य है ? कि- जो अपनी हि आत्मा के वैर को बढाता है ? उत्तर- विनाशी (विनश्वर) इस शरीर की वृद्धि = पोषण के लिये जो मनुष्य प्राणघात (जीववध) आदि पापचरण करता है... अतः वध कीये गये वे प्राणी, जन्मांतर में सेंकडो बार उस हिंसक मनुष्य का वध करतें हैं... इसीलिये मैं यह कहता हुं कि- कासंकष बहुमायी और कृतमूढ यह मनुष्य बार बार ऐसे कार्यों को करता है कि- जिस से वह अपने आत्मा के वैर भाव को बढाता है... अथवा तो हे जंबू ! मैं जो यह उपदेश-वचन आपको बार बार कहता हुं, वह संयम की पुष्टि के लिये हि है... तथा जो अमर न होते हुए भी धन, यौवन, प्रभुत्व (हकुमत) और रूप में आसक्त यह मनुष्य अपने आप को अमर समझता है... किंतु ऐसा मनुष्य वह होता है कि- जिसको कामभोग और उनके उपाय में बहोत श्रद्धा हो... जैसे कि- अमर... संक्षेप में कथा इस प्रकार है- राजगृह नगर में मगधसेना नाम की गणिका (वेश्यावारांगना) है... उस नगर में कोइ एक दिन धन नाम का सार्थवाह बहोत सारे धन-समृद्धि के साथ पहुंचा... उस धन श्रेष्ठी के रूप, यौवन, उदारतादि गुणगण और धन-समृद्धि से आक्षिप्त (आकर्षित) हुइ मगधसेना गणिका उस धन श्रेष्ठी के पास गइ; किंतु लाभ और खर्च की चिंता में डूबे हुए मनवाले धन श्रेष्ठी ने गणिका को देखा भी नहिं... तब मगधसेना गणिका को अपने रूप, यौवन और सौभाग्य के गर्व का खंडन होने से बहोत दुःखी हुइ... जब म्लानमुखवाली उस मगधसेना को धन-श्रेष्ठी ने देखा तब मगधसेना को धनश्रेष्ठी ने कहा कि- तुम्हारे दुःख का कारण क्या है ? अथवा तो तुम किस के साथ रहती हो ? तब वह मगधसेना बोली कि- अमर के साथ... उसने पुछा कि- वह अमर कौन ? तब मगधसेना ने जैसा था वैसा सब कुछ वृत्तांत कहा... और बताया कि- आज पर्यंत वह वैसा हि है, और उसी प्रकार से रहता है इत्यादि... इसलिये हे जंबू ! मैं तुम्हें कहता हूं कि- भोगसुखों की कामनावाले मनुष्य धन-समृद्धि में आसक्त होकर अजरामर की तरह पापाचरण में प्रवृत्त होते हैं... . अब जो प्राणी अमर की तरह आचरण करता है, और कामभोगों का अभिलाषी है, वह शारीरिक एवं मानसिक पीडाओं से पीडित होतें हैं... ऐसे उन्हे देखकर, तथा शास्त्रदृष्टि से विचार (चिंतन) करके साधु अर्थ (धन) और काम भोगोपभोग में मन न करें... अब और भी अमरायमाण एवं भोगश्रद्धावालों का स्वरूप कहते हुए शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि- कामभोग के स्वरूप अथवा उनके विपाक (फल) को नहि जानने के कारण से उन कामभोग में मन लगानेवाला मनुष्य अप्राप्त कामभोग की झंखना (कामना) करता है और प्राप्त भोग-सामग्री का विनाश होने पर शोक करता है... कहा भी है किं- प्रियजन