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________________ 164 1 -2-5-9 (96) - श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन I सूत्र // 9 // // 96 // 1-2-5-9 से मइमं परिण्णाय, मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए कासंकासे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्डेइ अप्पणो, जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए अमराय महासड्डी अट्टमेयं तु पेहाए अपरिण्णाए कंदइ // 96 // // संस्कृत-छाया : सः मतिमान् परिज्ञाय मा च खलु लालां प्रत्याशी, मा तेषु तिरशीन मात्मानमापादयः, कासंकषः (अकार्ष, करिष्ये) खलु अयं पुरुषः बहुमायी कृतेन मूढः पुनः तत् करोति, लोभं वैरं (च) वर्द्धते आत्मनः, यद् इदं परिकथ्यते, अस्य एव परिबृंहणार्थं, अमराय महाश्रद्धी, आर्तं एतं प्रेक्ष्य अपरिज्ञाय क्रन्दते // 96 // III सूत्रार्थ : __ वह मतिमान् साधु परिज्ञा करके वांत-त्यक्त को खाने की इच्छा न करें, किंतु उनसे अपने आत्मा को पराङ्मुख करें, यह संसारी पुरुष निश्चित हि कासंकष है, बहुमायावाला अपने कीये हुए कर्मो से मूढ है, फिर से उस लोभ को करता हैं, और अपने आत्मा का वैर बढाता है, इसलिये यह कहते हैं कि- संसारी-प्राणी इस शरीर के हि पोषण के लिये तथा मरण न हो इसके लिये भोगों में श्रद्धावाला होता है... अतः प्राणीओं को आर्त याने पीडित देखकर साधु भोग की इच्छा न करें... पुन: यह संसारी प्राणी परिज्ञा के अभाव में क्रंदन करता है // 96 // IV टीका-अनुवाद : वह पूर्व कहे गये श्रुतज्ञान से संस्कारित बुद्धिवाला मतिमान् साधु दो प्रकार की परिज्ञा से जैसा है वैसा हि देह का स्वरूप और कामभोगों का स्वरूप देखकर त्याग करता है... उसके बाद उन वमन कीये हुए कामभोग की इच्छा न करें... जैसे कि- छोटे बच्चे अच्छे-बुरे के विवेक के अभाव से मुंह और नाक में से निकलते हुए लार एवं श्लेष्म को पुनः खातें हैं, वैसा साधु न करें... तथा अज्ञान अविरति और मिथ्यादर्शन आदि स्वरूप संसार के प्रवाह से प्रतिकूल हि रहें और मोक्ष के कारण ज्ञानादि में अनुकूल रहें... अर्थात् मोक्षमार्ग में आत्मा को अप्रमत्त रखें... क्योंकि- प्रमादी साधु को कहिं भी शांति प्राप्त नहि होती है... तथा कासंकष याने ज्ञान आदि के कार्यों में प्रतिकूल बननेवाला मनुष्य भोगोपभोग की अभिलाषावाला होकर हमेशां कर्त्तव्यमूढ होता है, और “यह मैंने कीया, यह मैं करूंगा” इत्यादि भोगोपभोग की अभिलाषा में लगे हुए अंत:करण = मनवाला मनुष्य स्वस्थता का अनुभव भी नहिं कर
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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