________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2 - 5 - 8 (95) 163 बन्धन तोडने में सहायक शब्द का प्रयोग किया है, उसका तात्पर्य इतना ही है, कि- विषयवासना से मुक्त बना हुआ जीव हि अन्य किसी भी बद्ध जीव के बन्धन तोडने का मार्ग दिखा देता है, उपाय बता देता है, इसी कारण उसे निमित्त रूप से सहायक माना है। बन्धन तोडने का प्रयत्न तो आत्मा को हि करना होगा। अन्य जीव तो केवल पथप्रदर्शक बन सकता है। साधु ने शास्त्रदृष्टि से शरीर के वास्तविक स्वरूप को जान लिया है कि- यह शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ है। जैसे शरीर के अन्दर मल-मूत्र है, उसी प्रकार बाहिर भी मल लगा हुआ है और जैसे बाहिर से मल-युक्त है उसी प्रकार भीतर से भी मलीन है। शरीर के नव या बारह द्वारों से सदा मल का प्रस्रव होता रहता है। इस प्रकार शरीर में अपवित्रता के भंडार को देखकर वह अशुचि भावना का चिंतन करता है और दूसरों को भी इस भावना को भाने के लिए प्रेरित करता है, अतः वे लोग भी इस अशुचि के भंडार से निवृत्त होने की ओर लगाता है। प्रस्तुत सूत्र में अशुचि भावना का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया गया है। साधु अपने शरीर के अन्दर एवं बाहिर रही हुइ अपवित्रता को तथा समय-समय पर होने वाले कुष्ट आदि रोगों से होने वाली शारीरिक विकृति एवं घाव आदि से झरने वाले रक्त, पीप आदि को देखकर वह सोचता है, कि- यह शरीर कितना विकृत है। इसके स्पर्श जन्य भोग भी मात्र कर्मबंध को बढाने वाला है। कामभोगों से मात्र मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक अशुद्धि की ही अभिवृद्धि होती है। अतः प्रबुद्ध साधु इस अशुचि-भावना के द्वारा भोगोपभोग की निस्सारता को जानकर शरीर-स्पर्श जन्य कामभोगों से निवृत्त हो जाता है। . संत महापुरुष तीनों लोक के स्वरूप को शास्त्रदृष्टि से भली-भांति जानता है और सांसारिक विषय-भोगों से सर्वथा निवृत्त होकर आत्मिक अनन्त सुख पा लेता है, वही दीर्घदर्शी है और ऐसा महापुरुष ही संसार में फंसे हुए अन्य व्यक्तियों को मुक्त बनने की राह बता सकता है। तीन लोक के स्वरूप को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष जानने वाला सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होता है। जब कि- शास्त्रदृष्टिवाले साधु-संत शास्त्र के माध्यम से संपूर्ण लोक का ज्ञाता होतें हैं... निष्कर्ष यह निकला कि- जो अपने ज्ञान से या सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित श्रुत-ज्ञान से तीन लोक के स्वरूप एवं कर्मों के फल तथा काम-भोग के दुष्परिणाम को जानकर भोगों का सर्वथा परित्याग कर देता है। वास्तव में वह वीर है, प्रशंसा के योग्य है और वह सर्व कर्म बन्धन से मुक्त बनता है और दूसरों को भी मुक्ति का पथ बताता है। ___इस प्रकार अशुचि भावना के द्वारा साधक भोगों से निवृत्त होता है। उसके बाद साधक को क्या करना चाहिए ? अपनी संयम साधना को किस प्रकार गति-प्रगति देनी चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं...