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________________ 162 // 1-2-5-8(95) श्राम श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन को साधु शास्त्रदृष्टि से देखतें हैं... अथवा तो देहान्तराणि याने कोढ आदि की अवस्था में चारों और से एक साथ शरीर में से अशुचि निकलती है... तथा देह के नव या बारह द्वार अशुचि को बहाते हैं... नव द्वार इस प्रकार- दो आंखें, दो कान, दो नासिका, मुख, तथा मल और मूत्र के द्वार... यह नव द्वार पुरुषों के शरीर में होतें हैं... जब की स्त्रीओं के देह में इन नव से अतिरिक्त. दो स्तन एवं योनिमार्ग... अतः इन नव या बारह द्वारों से कर्णमल, चक्षुमल, श्लेष्म, लार, मूत्र एवं मल-विष्टा आदि... तथा अन्य भी विविध प्रकार के रोगों से होनेवाले व्रण (घाव) में से अपवित्र लोही एवं रसी आदि निकलते रहतें हैं... __ यदि इस शरीर में ऐसा हि दुर्गंधमय सब कुछ रहा हुआ है तब तत्त्व को जाननेवाले विद्वान् साधु जन इस शरीर का स्वरूप जैसा है, वैसे स्वरूप को शास्त्रदृष्टि से अच्छी तरह से जाने, समझे और विवेक करें... अन्यत्र भी कहा है कि- मांस, हड्डी, लोहीं, स्नायु, मेद, मज्जा, और मल, मूत्र से पूर्ण, दुर्गधि एवं अशुचि से बिभत्स, चमडे का थैला, तथा निरंतर गलते हुए मल-मूत्र आदि मलिनता से पूर्ण एवं अशुचि के कारण ऐसे इस शरीर-देह में राग होने का कारण क्या है ? अर्थात् देह-शरीर पर राग नहि होना चाहिये... इस प्रकार दुर्गंधवाले देह के अंदर के भागों को शास्त्रदृष्टि से देखनेवाले तथा नव द्वारों से अशुचि को बाहर बहानेवाले इस शरीर को देखकर साधुजन क्या करें ? इस प्रश्न के उत्तर में सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहेंगे... सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- भोगों से वही व्यक्ति विरक्त हो सकता है, जो दीर्घदर्शी है। अर्थात् जो केवल वर्तमान के भोगोपभोगों को ही नहीं. देखता किंतु ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक् क्षेत्र में भोगोपभोगों से प्राप्त होने वाली विषम स्थिति को भी शास्त्रदृष्टि से देखता है। इसलिए उसे आयतचक्षु-दीर्घदर्शी के साथ लोकदर्शी भी कहा है। इसका अभिप्राय यह है, कि- वह साधु सम्यग् ज्ञान के द्वारा लोक के स्वरूप को जान लेता है। उसे यह स्पष्ट हो जाता है, कि- लोक याने चारगति का आधार विषय-वासना ही है। यह हम पहिले भी देख चुके हैं, कि- विषय-वासना मोहनीय कर्म जन्य है और मोह कर्म ही लोक में परिभ्रमण कराने वाला है। इस मोहकर्म के वशीभूत जीव विभिन्न गतियों में शुभाशुभ अनेक वेदनाओं का संवेदन करता है। इस प्रकार जो प्रबुद्ध साधु मोहकर्म के विपाक को जानकर काम-वासना का परित्याग करता है, वह साधु हि भोगोपभोगों से सदा दूर रहता है। और विषय-वासना से निवृत्त होकर अपने कर्म के बन्धन को तोडता है एवं दूसरों के कर्म बन्धन काटने में भी सहायक बनता है। यह सत्य है, कि- आत्मा स्वयं ही अपने बन्धनों को तोडती है। फिर भी, यहां जो
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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