________________ 158 1-2-5-7 (94) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन करके अब संताप क्यों करता है ? तुं यह नहि जानता कि- जल में कभी जल से सेतुबंध होता है क्या ? अर्थात् नहि होता है... इत्यादि... तथा तेपते याने संचलित होता है, अर्थात् संयम की मर्यादा से भ्रष्ट होता है, मर्यादाहीन होता है... तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों से पीडित होता है... तथा परि याने चारों और से बाहर और अंदर संतप्त होता है, अथवा पश्चाताप करता है... जैसे कि- इष्ट पुत्र एवं स्त्री आदि कोप से कहिं चले जाने पर वह चिंता करता है कि- “मैं इनको अनुकूल न रहा" ऐसा सोचकर परिताप करता है... इस प्रकार विषय रूप विष से पीडित अंत:करणवालों की यह सभी चिंताएं दुःखावस्था के सूचक हैं... अथवा यौवन धन मद और मोह से अभिभूत = तिरस्कृत मनवाला व्यक्ति उचित आचरण से विपरीत आचरण का सेवन करके बाद में वृद्धावस्था में अथवा मरण समय समीप में आने पर अथवा तो मोह दूर होने पर सोचता है कि- मंदभाग्यवाला मैंने यौवन अवस्था में सभी शिष्ट पुरुषों से आचरित, सद्गति में जाने के कारण एवं दुर्गति के द्वार में परिघ (भुंगल) के समान जिन धर्म का आदर न कीया... इत्यादि... इस प्रकार चिंता-शोक करता है... कहा भी है कि- देह-शरीर के निश्चित हि होनेवाले विषम-विपरीत परिणाम को सोचे बिना मैंने यौवन के मद से पूर्वकाल में अनेक अशुभ = पापाचरण कीये हैं, अतः वे पापाचरण परलोक में जाने का समय समीप (नजदीक) में आने पर अथवा जरा = वृद्धावस्था से शरीर जीर्ण होने पर अब मुझे चिंता का विषय बनकर व्यथित करतें हैं... कहा भी है कि- गुणवाले अच्छे या दोषवाले बूरे कार्यों को करते समय बुद्धिशाली पुरुष सावधानी से उनके परिणाम का अवश्य विचार = चिंतन करें... क्योंकि- बिना शोचे - विचारे कीये हुए कर्मो का विपाक = फल, आपदा = संकट के समय हृदय को व्याकुल करनेवाले शल्य तुल्य होते है... ऐसा उपरोक्त शोक एवं व्याकुलता किसको नहिं होता है ? यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : जीवन में अन्य विकारों की अपेक्षा से काम-वासना को सबसे बलवान् शत्रु माना है। उस पर विजय पाना बहुत ही कठिन है। इसी कारण सूत्रकार ने काम-वासना को 'दुरतिकम्मा' कहा है अर्थात् काम-वासना को परास्त करना दुष्कर है। काम के दो भेद हैं-१. इच्छा रूप काम और 2. मैथुन सेवन रूप काम। दोनों प्रकार