________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-5-7 (94) 157 IV टीका-अनुवाद : - काम के दो प्रकार है- 1. इच्छाकाम और 2. मदनकाम... उनमें इच्छाकाम की उत्पत्ति मोहनीयकर्म के भेद स्वरूप हास्य और रतिमोहनीय से होती है, तथा मदनकाम की उत्पत्ति मोहनीय कर्म के भेद स्वरूप स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद से होती है... अत: मोहनीयकर्म के सद्भाव में काम का विच्छेद होना असंभव है, इसलिये कहतें हैं कि- काम दुरतिक्रम हैं, अतिक्रम याने विनाश... अर्थात् काम का विनाश होना दुष्कर है... इसीलिये उपदेश देते हैं कि- मोहनीयकर्म के विच्छेद के लिये संयमानुष्ठान में अप्रमत्त रहें... और भी विशेष उपदेश देते हुए कहतें हैं कि- जीवित याने आयुष्य क्षीण होने पर जीवित रहना मुश्केल है... अथवा कामभोग में आसक्त लोगों को संयम-जीवित निर्दोष रूप से पालन करना दुष्कर है... कहा भी है कि- आकाश में गंगा के प्रवाह की तरह... नदी पूर में प्रतिश्रोत याने प्रवाह के सामने की और तैरने की तरह... गंभीर महासमुद्र को भुजा से तैरने की तरह... मोक्षमार्ग रूप यह संयम जीवित दुष्कर हि है... तथा- रेत के कवल की तरह निराशंस भाव से संयम-पालन दुष्कर है, तथा लोहे के बने हुए जव (चणे) को चबाने की तरह संयमजीवन अतिशय दुष्कर हि है... तथा जिस अभिप्राय से कामभोग का त्याग दुष्कर है ऐसा हमने पहेले कहा है, उस अभिप्राय को पुनः कहते हुए कहतें हैं कि- कामकामी याने काम = भोगोपभोगों की अभिलाषा करनेवाले प्राणी = जंतु... कामकामी है... ऐसा अविरतचित्तवाला जंतु विविध प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का अनुभव करता है... वह इस प्रकार- इच्छित अर्थ-वस्तु * की अप्राप्ति में तथा पुण्योदय से प्राप्त इच्छित वस्तु के वियोग में उनका स्मरण करता हुआ वह मनुष्य शोक का अनुभव करता है... और काम स्वरूप महाज्वर से पीडित वह प्राणी विविध प्रकार का प्रलाप करता है... कहा भी है कि- 1. प्रेम का संबंध तुटने से, 2. प्रेम-बहुमान क्षीण होने से, 3. सद्भाववाले प्रियजन का वियोग-मरण होने से, उस प्राणी को ऐसा आभास होता है किदेखो ! वह हमारा प्रियजन जा रहा है... इस प्रकार उत्प्रेक्षा-कल्पना करता हुआ वह सोचता है कि- हे प्रियजन ! वे दिन तो चले गये... अब तुम कहां जा रहे हो ! और तुम्हारे वियोग में ऐसा कौन कारण है कि- इस मेरे हृदय का चूरचूर = सेंकडो टुकडे नहिं होतें ? इत्यादि प्रकार से प्राणी शोक करता है... * तथा हृदय से खेद पाता है... वह इस प्रकार- हे हतहृदय ! हे निराश ! पहले से हि तुझे यह सोचना = विचार करना था कि- बहोत लोगों को प्रिय ऐसे इस स्वजन से प्रेम