________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-5-8(99) 159 के काम का उद्भव मोहनीय कर्म के उदय से होता है। हास्य, रति आदि से इच्छा आकांक्षा एवं.वासना उद्बुद्ध होती है और वेदोदय से मैथुन सेवन की प्रवृत्ति होती है। अत: कामभोग मोहनीय कर्मजन्य हैं और जब तक मोह कर्म का सद्भाव रहता है, तब तक उनका सर्वथा उन्मूलन कर सकना कठिन है। इसलिए सूत्रकार ने मोह को दुर्जय कहा है। क्योंकि- मोहनीय कर्म सभी कर्मो का राजा माना गया है। इसलिए घाति कर्मों का क्षय करने वाले क्षपकश्रेणीस्थित साधुजन सब से पहले मोह कर्म का ही नाश करते हैं। क्योंकि- राजा को परास्त करने पर शेष शत्रु सैन्य तो स्वयं ही पराजित हो जाते हैं; फिर उनका नाश करने में देरी नहीं लगती। परन्तु राजा को जीतना आसान काम नहीं है। इसलिए साधु को इस मोहनीय कर्म पर विजय पाने के लिए सदा सावधान रहना चाहिए। एवं अपने मन, वचन एवं शरीर को संयमानुष्ठान के प्रति सावधान करना चाहिए। .. वासना एक ऐसी भूख है, जो कभी शांत नहीं होती। काम-भोग को आग कहा गया है और आग ईंधन डालने पर शांत नहीं, किंतु अधिक प्रज्वलित होती है। यही बात विषयवासना की है, वह पदार्थों के भोगोपभोग से शांत नहीं होती है, किंतु अत्यधिक उग्र बनती जाती है। हम सदा देखते हैं कि- एक इच्छा पूरी भी नहीं हो पाती है उतने में दूसरी इच्छा जाग उठती है। उसके समाप्त होते, न होते तीसरी, चौथी आदि इच्छाएं जागती रहती हैं, अतः काम-वासना का कभी भी अन्त नहीं आता। - यदि कभी भाग्य से कतिपय इच्छाएं पूरी भी हो जाएं, तब भी मनुष्य स्वस्थता को नहीं पा सकता। क्योंकि- आखिर यह जीवन भी तो सीमित है। और वासना असीम है, अनन्त है, और उसकी अभिवृद्धि के साथ साथ जीवन को बढाया नहीं जा सकता। इसलिए वासना, इच्छा एवं आकांक्षा मन में ही रह जाती है और मानव जन्मांतर की यात्रा के लिए चल पडता है। इससे स्पष्ट है कि- वासना की आग मनुष्य को सदा जलाती रहती है और उसमें प्रज्वलित मनुष्य विषय-वासना की पूर्ति न हो सकने के कारण सदा चिन्ता-शोक करता है, मन में खेद करता है और रोने लगता है। इस प्रकार वासना के ताप से मोहाधीन मनुष्य सदा सन्तप्त रहता है। . इसलिए साधक को प्रमाद का त्याग करके सदा विषय-भोगों से दूर रहना चाहिए। क्योंकि- जो व्यक्ति काम-भोग के दुष्परिणाम को जानकर विषय-भोगों में नहीं फंसता, वह सदा सुखी रहता है और पूर्ण सुख-शांति को प्राप्त करता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं.... I सूत्र // 8 // // 95 // 1-2-5-8 आययचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढे भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ, गड्डिए लोए अणुपरियमाणे संधिं विइत्ता इह मच्चिएहि, एस वीरे पसंसिए,