________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-5-6 (93) % 155 कर्मभूमि को प्राप्त करके तथा मोक्ष वृक्ष के बीज स्वरूप बोधि (सम्यग्दर्शन) और .सर्वविरति चारित्र को प्राप्त करके इस आर्यों के द्वारा कहे गये मोक्षमार्ग में कुशल साधु ऐसा धर्मानुष्ठान करें कि- जिस से आत्मा पाप-कर्मों से लिप्त न हो... यदि कहे गये विधि के अनुसार धर्मानुष्ठान न करें तो आत्मा कर्मो से लिप्त होता है... और सज्जनों का यह मार्ग है कि- स्वयं ने ली हुइ प्रतिज्ञा का पालन अंतिम श्वासोच्छ्वास पर्यंत करें... कहा भी है किअत्यंत शुद्ध हृदयवाली आर्य मां की तरह गुणों के समुदाय को जन्म देनेवाली लज्जा को अर्थात् संयम को अनुसरनेवाले तेजस्वी साधुजन अपने प्राणों को सुख-सहजता से छोड देतें हैं किंतु परीषहोपसर्गादि संकट आने पर भी व्रत प्रतिज्ञा का त्याग नहि करतें... यहां इति शब्द अधिकार की समाप्ति सूचक है, ब्रवीमि याने वह मैं सुधर्मस्वामी हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं कि- मैंने भगवान् महावीर प्रभु की सेवा करते हुए प्रभुजी के मुखारविंद से जो कुछ सुना है वह यह है... ___ इस सूत्र में कहा कि- परिग्रह से आत्मा को दूर रखें, किंतु ऐसा तो नियाणे के उच्छेद के सिवा हो हि, नहि शकता... और नियाणा (निदान) तो शब्दादि पांच विषयगुणो की कामना स्वरूप है... और इन शब्दादि पांच विषयगुणो की कामना का छेद करना सुगम नहि है... अतः इस परिस्थिति में विषयगुणों की भयानकता का स्वरूप सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में परिग्रह का स्पष्ट अर्थ व्यक्त किया गया है। यह बताया गया है किकेवल वस्त्र-पात्र आदि पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। किंतु उनमें आसक्ति रखना परिग्रह है। अतः कुशल साधक को परिग्रह का त्याग करके अपनी आत्मा को पाप कर्मों से सर्वथा लिप्त नहीं होने देना चाहिए। 'अन्नहा पासए परिहरिजा' का अर्थ है कि- सर्व प्रकार से साधु परिग्रह का त्याग करे। इसका स्पष्ट अर्थ है कि- गृहस्थ वस्त्र, पात्र, मकान, शय्या आदि साधनों को सुख रूप समझकर उनमें आसक्त रहते हैं और रात-दिन उनका संग्रह करने में संलग्न रहते हैं। परन्तु मुनि की दृष्टि इससे भिन्न होती है। वह साधनों को, उपकरणों को गृहस्थ की तरह सुखमय समझकर नहीं ग्रहण करता, किंतु संयम साधना को गतिशील बनाने के लिए उन्हें सहायक के रूप में स्वीकार करता है। इसलिए साधु उनमें आसक्त नहीं होता / वर्तमान समय पर जैसे भी उपयुक्त वस्त्र-पात्र आदि प्राप्त हो, उसी में संतोष मानता हुआ साधु समभाव से संयमाराधना में संलग्न रहता है। इससे स्पष्ट होता है कि- वस्त्र-पात्र आदि उपकरण परिग्रह नहीं हैं। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा है- कि वस्त्र आदि उपकरण परिग्रह नहीं है, किंतु उन पर मूर्छा