________________ 154 1 -2-5-6 (93) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन इन वस्त्र आदि संयमोपकरण पर आसक्ति रखने से परिग्रह का दोष लगता है। इसलिए मुनि को वस्त्र आदि किसी पदार्थ पर मूर्छा या आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। इसी बात का उपदेश देते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 6 // // 93 // 1-2-5-6 ___ अण्णहा णं पासए परिहरिज्जा, एस मग्गे आयरिएहिं पवेइए, जहित्थ कुसले नोवलिंपिज्जासि त्ति बेमि // 93 // II संस्कृत-छाया : अन्यथा पश्यकः परिहरेत्, एषः मार्गः आचार्यैः प्रवेदितः, यथा अत्र कुशलः न उपलिम्पयेत् इति ब्रवीमि // 93 // III सूत्रार्थ : मुनि सभी प्रकार से परिग्रह का त्याग करे... यह मार्ग आचार्यों ने कहा है, अपरिग्रहता से यहां कुशल साधु कर्मो से उपलिप्त न हो... इति हे जम्बू ! मैं (सुधर्मास्वामी) तुम्हे कहता हुं // 93 // IV टीका-अनुवाद : सर्व प्रकार से पश्यक याने मुनि परिग्रह का त्याग करे... जैसे कि- परमार्थ तत्त्व को नहि जाननेवाले गृहस्थ-लोग वैषयिक भोगोपभोग लिये परिग्रह को देखतें (चाहतें) हैं, वैसे साधु नहि देखतें... यहां साधु यह सोचते हैं कि- यह वस्त्र आदि उपकरण आचार्यजी के हैं, मेरे नहिं... इत्यादि... यहां मात्र राग-द्वेष मूलवाले परिग्रह के आग्रह का हि निषेध है, धर्मोपकरण का निषेध नहि है... क्योंकि- धर्मोपकरण के बिना संसार-समुद्र का पार पाना मुश्केल है... कहा भी है कि- छोटा कार्य यथा कथंचित् (जैसे तैसे) सिद्ध हो शकता है किंतु बडा (महान्) कार्य वैसे सिद्ध नहिं होता... जैसे कि- समुद्र को तैरना जहाज-नौका के बिना शक्य नहि है... __यहां जैनके आभासवाले बोटिकों (दिगंबरों) के साथ बडा-महान् विवाद है, अत: विवक्षित = कथन योग्य बात तीर्थंकरों के अभिप्राय के द्वारा सिद्ध करने की इच्छावाले श्री शीलांक आचार्य म. कहते हैं कि- “धर्मोपकरण परिग्रह नहि है..." यह यहां कहा गया मार्ग आर्य याने तीर्थंकरो ने कहा है... किंतु बोटिक (दिगंबर) मतवालों ने अपनी रुचि-इच्छा अनुसार बनाया हुआ मार्ग मोक्ष मार्ग नहि है... अथवा तो शौद्धोदनि = बुद्ध के द्वारा प्रकाशित कीया हुआ मार्ग भी मोक्षमार्ग नहि है... इस दृष्टिकोण से अन्य मतों का भी त्याग कीजीयेगा...