________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-5-5 (92) 152 गया है। .. - अवग्रह के 5 भेद कहे गए हैं। 1. देवेन्द्र अवग्रह, 2. राजअवग्रह, 3. गृहपतिअवग्रह, 4. शय्यातर अवग्रह, और 5. साधर्मिक अवग्रह। इनमें प्रथम अवग्रह को छोडकर शेष चारों अवग्रह स्पष्ट हैं। किंतु देवेन्द्र की आज्ञा कैसे ली जाती है और वह आज्ञा कैसे देता होगा ? भगवती सूत्र शतक 16 उद्देशक 2 में वर्णन आता है कि- एक बार शक्रेन्द्रने भगवान महावीर से कहा था कि- मैं आपके साधुओं को पृथ्वी पर विचरने की एवं तृण-काष्ठ आदि ग्रहण करने की आज्ञा देता हूं। देवेन्द्रअवग्रह का यही अभिप्राय है। और इस पर से ही यह परम्परा है कि- जंगल आदि में जहां कोई. व्यक्ति नहीं होता है; वहां तृण-कंकर आदि लेने की आवश्यकता होती है, तब शक्रेन्द्र की आज्ञा ली जाती हैं। 'कट' शब्द से संस्तारक और 'आसन' शब्द से शय्या; मकान आदि ग्रहण किया है। अत: वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, शय्यासंस्तारक आदि की सदोषता-निर्दोषता का भलीभांति परिज्ञान करे और उसमें सदोष का त्याग करके निर्दोष पदार्थो का स्वीकार करे। ___यह सत्य है कि- जीवन निर्वाह के लिए निर्दोष आहार आदि ग्रहण करने का आदेश दिया गया है। परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि- निर्दोष पदार्थ होने से वह चाहे जितना ग्रहण करले। उसमें भी मर्यादा है, परिमाण है। साधु अपने परिमाण से अधिक आहार आदि को ग्रहण नहीं करे। इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहते हैं... I सूत्र // 5 // // 92 // 1-2-5-5 लद्धे आहारे अणगारो मायं जाणिज्जा, से जहेयं भगवया पवेइयं, लाभुत्ति न 'मज्जिज्जा, आलाभु त्ति न सोइज्जा, बहुं पि लटुं न निहे, परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्किज्जा // 92 // II संस्कृत-छाया : लब्धे आहारे अनगारः मात्रां जानीयात्, तद् यथा भगवता प्रवेदितं, लाभः इति न माद्येत्, अलाभः इति न शोचेत्, बहु अपि लब्ध्वा न सन्निधिं कुर्यात्, परिग्रहात् आत्मानं अपसर्पयेत् // 92 // III सूत्रार्थ : आहार प्राप्त होने पर साधु मात्रा = प्रमाण को जाने, परमात्माने कहा है... कि- लाभ होने पर मद न करें, अलाभ होने पर शोक न करें, और अधिक लाभ होने पर संनिधि न करें, और परिग्रह से अपने आपको दूर रखें... // 92 //