________________ 1501 -2-5-4 (91) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 में प्रतिज्ञा मात्र का निषेध नहीं किया है। उनका अभिप्राय राग-द्वेष युक्त प्रतिज्ञा का परित्याग करने से है। यह बात प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट हो जाती है कि- मुनि राग-द्वेष युक्त प्रतिज्ञा का छेदन करके निर्दोष वस्त्र-पात्र आदि पदार्थो का अभिगह-प्रतिज्ञा ग्रहण करे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि- आहार, वस्त्र, पात्र आदि ग्रहण करने के लिए किए जाने वाले विविध अभिग्रहों का त्याग करने का नहीं कहा है। परन्तु यह कहा गया है किराग-द्वेष या निदान पूर्वक कोई अभिग्रह प्रतिज्ञा न करे। क्योंकि- राग-द्वेष से परिणामों में विशुद्धता नहीं रहती और परिणामों एवं विचारों का दूषित प्रवाह उस प्रतिज्ञा को स्पर्श किए विना नहीं रहता है। अत: दोष युक्त भावों से की गई प्रतिज्ञा में भी अनेक दोषों का प्रविष्ट होना स्वाभाविक है। जैसे मकान के चारों ओर लगी हुई आग की ज्वाला में अपने मकान का आग के प्रभाव से सर्वथा अछूता रहना असम्भव है। उसी प्रकार जिस साधक के मन में राग-द्वेष की ज्वाला प्रज्वलित है, उस समय की गई प्रतिज्ञा भी उस राग की आग से निर्लिप्त नहीं रह सकती, उस प्रतिज्ञा पर उसका प्रभाव पडे विना नहीं रहता। अत: साधक को चाहिए कि- वह राग-द्वेष की धारा का छेदन करे। यदि कभी राग-द्वेष की आग प्रज्वलित हो उठी हो तो पहले उसे उपशान्त करे, उसके बाद शान्त मन से प्रतिज्ञा धारण करे। इससे स्पष्ट हुआ कि- साधु राग-द्वेष का परित्याग करके संयम में प्रवृत्ति करे। इससे उसके मन में चञ्चलता नहीं रहेगी और दृष्टि में धून्धलापन एवं विकार नहीं रहेगा। इससे लाभ यह होगा कि- वह अपनी की गई प्रतिज्ञा तथा जीवन में की जाने वाली अन्य प्रतिज्ञाओं का भली-भांति परिपालन कर सकेगा। साधु की प्रतिज्ञा है कि- वह किसी भी प्रकार के दोषहिंसा आदि का सेवन न करे और साधु के निमित्त किसी भी प्रकार का आरम्भ-समारम्भ भी न किया जाए। इस प्रतिज्ञा का पालन रागद्वेष का छेदन कर के ही हो सकता है। क्योंकिसाधना में सहायक वस्त्र-पात्र आदि उपकरणों की आवश्यक्ता होती है और उनके लिए गृहस्थ अनेक प्रकार के आरंभ-समारंभ कर सकता है। यदि साधु के मन में राग-द्वेष है, या यों कहिए कि- वस्त्र पात्र आदि देने वाले गृहस्थ के प्रति अनुराग है, तो वह अपने साधना पथ से विचलित जायगा और अपनी प्रतिज्ञा को भूल कर सदोष-निर्दोष की जांच किए विना ही उन उपकरणों को ले लेगा। इसलिए सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में साधक को यह आदेश देते हुए कहा है कि-वह राग-द्वेष का छेदन करके वस्त्र; पात्र, कम्बल, रजोहरण, आसन आदि के दोषों का परिज्ञान करे, यह देखे कि यह उपकरण गृहस्थ के यहां किस प्रयोजन से आए है। वह अपने उपभोग के लिए इन्हें लाया है या मेरी आवश्यकता को पूरा करने के लिए ? इसका सम्यक्तया परीक्षण करे। परीक्षण के बाद यदि वे साधन सदोष प्रतीत हों तो उनका परित्याग करके निर्दोष साधनों-उपकरणों की गवेषणा करे। इस कथन से आहार-एषणा, वस्त्र-एषणा आदि का भी स्पष्ट निर्देश किया