________________ 152 1-2-5-5 (92) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन - IV टीका-अनुवाद : आहार वस्त्र औषध आदि प्राप्त करने में साधु मात्रा-प्रमाण जाने... मात्रा याने "जितने प्रमाण में आहार आदि ग्रहण करने से गृहस्थ पुनः आरंभ समारंभ न करे, और जितने आहार आदि के प्रमाण से अपने विवक्षित कार्य पूर्ण हो" ऐसे प्रकार की मात्रा को जाने यहां यह सारांश है... यह बात हम अपने मन से नहिं कहतें हैं, किंतु ऐश्वर्यादिगुण युक्त भगवान् परमात्मा महावीर प्रभुने सभी जीवों को अपनी अपनी भाषा में बोध हो ऐसी अर्धमागधी भाषा में देव और मनुष्यों की बारह पर्षदा में केवलज्ञान-चक्षु से देखकर कही है... यह बात पंचम गणधर श्री सुधर्मस्वामीजी अपने शिष्य जंबूस्वामी को कहते हैं... "वस्त्र, आहार आदि मुझे प्राप्त हुए हैं" अत: अहो ! मैं लब्धिवाला हुं इस प्रकार साधु मद न करें, तथा आहार आदि प्राप्त न होने पर शोकवाला होकर दुर्ध्यान भी न करें जैसे कि- मुझे धिक्कार हो, कि- मंद भाग्यवाला मैं, सभी दान में तत्पर ऐसे दाताओं से आहार आदि प्राप्त नहिं कर पाता हुं इत्यादि... किंतु यहां साधु लाभ और अलाभ में मध्यस्थता हि रखें... कहा भी है कि- यदि आहार आदि प्राप्त हो तो भी अच्छा, और यदि प्राप्त न हो तो भी अच्छा... यदि आहार आदि प्राप्त न हो, तो संयम तप की वृद्धि हो, और प्राप्त हो तो संयम-प्राण का धारण हो... इत्यादि... . इस प्रकार पिंड (आहार) पात्र और वस्त्र की एषणा कही... अब संनिधि का निषेध करते हुए कहतें हैं कि- आहार आदि अधिक प्राप्त हो, तो संनिधि न करें, संचय न करें... थोडा भी न रखें, और अधिक भी न रखें... मात्र आहार का हि संनिधि न करें इतना हि नहिं, किंतु अन्य वस्त्र, पात्र, आदि संयम के उपकरणों का भी अतिरिक्त संग्रह न रखें, अर्थात् संचय न करें... परिग्रह याने चारों और से जो आत्मा को ग्रहण करे, पकडे वह परिग्रह... धर्म के उपकरण से अतिरिक्त जो कुछ उपकरण है वह परिग्रह है, यह परिग्रह आत्मा को संयम से दूर करता है... अथवा संयम के उपकरण भी मूर्छा रखने से परिग्रह होते हैं... “मूर्छा हि परिग्रह है" ऐसा उमास्वातिजी का वचन है... अतः आत्मा को परिग्रह से दूर रखें, और संयम के उपकरण में भी साज सजे तुरग-घोडे की तरह मूर्छा न रखें... मूर्छा न करें... प्रश्न- जो कुछ धर्मोपकरण आदि का ग्रहण है, वह भी चित्त की कलुषितता के सिवा नहि होता... जैसे कि- अपने उपकार करनेवाले पे राग तथा उपघात- पीडा करनेवाले पे द्वेष, अतः परिग्रह होने पर राग और द्वेष दूर नहि होतें, और राग एवं द्वेष होने से कर्मो का बंधन निश्चित हि है, अतः धर्मोपकरण भी परिग्रह क्यों नहिं है ? कहा भी है कि- जब तक “मैं और मेरा" यह अभिमान स्वरूप दाहज्वर है, तब तक