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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका #1-2-5-3(90) 145 तथा खेदज्ञ = खेद याने अभ्यास, उस अभ्यास से जाननेवाला, अथवा खेद याने श्रम संसार में पर्यटन से लगी हुइ थकान को जाननेवाला, कहा भी है कि- जरा (वृद्धावस्था) मरण, दरिद्रता (दुर्गति) व्याधि (रोग) की बात तो दूर रहो, किंतु मैं तो ऐसा मानता हूं कि- बार बार जन्म हि धीर पुरुष को लज्जा देता है... इत्यादि... अथवा क्षेत्रज्ञ = संसक्त, विरुद्धद्रव्य, और परिहार्यकुल आदि क्षेत्र के स्वरूप के ज्ञाता... तथा क्षणकज्ञ = क्षणक याने अवसर और वह भिक्षा आदि का समय... उसको जो जाने वह क्षणकज्ञ... तथा विनयज्ञ = विनय याने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचारविनय... इन्हें जो जाने वह विनयज्ञ... तथा स्वसमय-परसमयज्ञ = स्वसमयज्ञ याने स्वसिद्धांतों का ज्ञाता गोचरी = भिक्षा के लिये गये हुए मुनि को पुछने पर सहज भाव से भिक्षा के दोष कहे... वे इस प्रकार- उद्गम के 16 दोष- 1. आधाकर्म, 2. औद्देशिक, 3. पूतिकर्म, 4. मिश्रजात, 5. स्थापना, 6. प्राभृतिका, 7. प्रादुष्करण 8. क्रीत, 9. प्रामित्य (उद्यतक), 10. परिवर्तित, 11. अभ्याहृत, 12. उद्भिन्न, 13. मालापहृत, 14. आच्छेद्य, 15. अनिसृष्ट, 16. अध्यवपूरक तथा उत्पादना के 16 दोष... 1. धात्री पिंड दोष... 2. दूतीपिंड, 3. निमित्त, 4. आजीवपिंड, 5. वनीपक, 6. चिकित्सा, 7. क्रोधपिंड, 8. मानपिंड, 9. मायापिंड, 10. लोभपिंड, 11. पूर्वसंस्तव, 12. पश्चात्संस्तव, 13. विद्यापिंड, 14. मंत्रपिंड, 15. चूर्णयोगपिंड, 16. मूलकर्म... तथा एषणाके 10 दोष... 1. शंकित, 2. म्रक्षित, 3. निक्षिप्त, 4. पिहित, 5. संहत, 6. दायक, 7. उमिश्र, 8. अपरिणत, 9. लिप्त, 10. उज्झितदोष... इन में से जो सोलह उद्गम दोष हैं वे दाता की और से लगते हैं तथा सोलह उत्पादन के दोष साधु की और से लगते हैं तथा एषणा के दश दोष दाता (गृहस्थ) और साधु दोनों के द्वारा लगते हैं... .. और परसमयज्ञ याने अन्य मत के शास्त्रों को जानने वाले... जैसे कि- ग्रीमऋतु के मध्याह्न के समय आकाश में अति उग्र तप रहे सूर्य के किरणों के ताप से पर्वत शिला पे खुल्ले पाउं कायोत्सर्ग-ध्यान कर रहे साधु के शरीर से निकलते हुए पसीने के बिंदुओं को देखकर कोइक ब्राह्मण उन साधु से कहे कि- सभी लोक को मान्य ऐसा स्नान आपको कयों मान्य (संमत) नहि है ? तब वह साधुजी कहते हैं कि- स्नान यह कामविकार का अंग (कारण) है अतः सभी साधुजनों के लिये स्नान वर्जित (त्याज्य) है... ऋषिओं ने भी कहा है किमद और दर्प करनेवाला यह स्नान कामक्रीडा का प्रथम अंग (कारण) है अत: दम में रक्त मुनिजन काम का त्याग करने के बाद स्नान नहिं करतें... इत्यादि... इस प्रकार उभय याने दोनों मत के शस्त्रों को जाननेवाले साधु कोइ भी शास्त्र संबंधित प्रश्न उपस्थित होने पर उत्तर देने में कुशल होता है... तथा भावज्ञ याने दाता या श्रोता के चित्त के अभिप्राय को जाननेवाला... तथा परिग्रह में याने संयम के अतिरिक्त उपकरण आदि में ममत्वभाव नहि करनेवाला अर्थात् मन से भी
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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