________________ 146 1-2 - 5 - 3 (90) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन परिग्रह को नहि चाहनेवाला... ऐसे गुणवाला साधु कालज्ञ बलज्ञ मात्रज्ञ क्षेत्रज्ञ खेदज्ञ क्षणज्ञ विनयज्ञ समयज्ञ और भावज्ञ तथा परिग्रह में ममता नहि करनेवाला वह साधु कालानुष्ठायी होता है, अर्थात् जिस समय में जो कार्य करने योग्य है उन्हे उसी समय में करनेवाला, अर्थात् काल का उल्लंघन नहि करनेवाला... प्रश्न- यह बात तो कालज्ञ पद से कह चूके हो, तो अब पुन: क्यों कहते हो ? उत्तर- ना, यहां यह पुनरुक्त दोष नहि है, क्योंकि- वहां कालज्ञ पद में मात्र ज्ञपरिज्ञा हि कही गइ है, वहां मात्र कार्य-कर्त्तव्य का काल जानता है, और यहां कर्त्तव्यकाल में आसेवना-परिज्ञा है अर्थात् कर्त्तव्यकाल में क्रियानुष्ठान करना है... तथा अप्रतिज्ञ याने जिन्हें कषाय के उदय से होनेवाली कोइ प्रतिज्ञा नहि है... वह इस प्रकार- क्रोध-कषाय के उदय से स्कंदकाचार्यजी (खंधकसूरीजी) ने अपने शिष्यों के यंत्रपीलन का प्रसंग देखकर सेना, वाहन, राजधानी के साथ पुरोहित के विनाश की प्रतिज्ञा की थी... तथा मान के उदय से बाहुबलीजी ने प्रतिज्ञा की थी कि- केवलज्ञानवाले छोटे (98) भाईओं को छद्मस्थ ऐसा मैं कैसे देखें ? तथा माया कषाय के उदय से मल्लिनाथ-तीर्थंकर के जीवने पूर्व जन्म में अन्य साधुओं को कपट-माया से ठगा था कि- आज मैंने प्रत्याख्यान परिज्ञा ली है... तथा लोभ कषाय के उदय से परमार्थ तत्त्व को नहि जाननेवाले मात्र वर्तमानकाल को देखनेवाले तथा साधु नहिं किंतु साधु के आभास जैसे साधुलोग भौतिककामना से मासक्षपण आदि प्रतिज्ञाएं करते हैं... ___ अथवा अप्रतिज्ञ याने अनिदान संयमानुष्ठान करनेवाले साधु वसुदेव की तरह नियाणा नहिं करतें... अथवा गोचरी (भिक्षा) के लिये निकला हुआ साधु "मुझे आज विविध प्रकार के विशिष्ट आहार आदि प्राप्त होंगे" इत्यादि प्रतिज्ञा नहिं करतें... अथवा जिनेश्वरों के आगमशास्त्र स्याद्वाद प्रधान हैं अतः एक पक्ष के अवधारण-आग्रह स्वरूप प्रतिज्ञा से रहित वह अप्रतिज्ञ... जैसे कि- मैथुन-विषय को छोडकर अन्य कोइ भी नियमवाली प्रतिज्ञा न करनी चाहिये... यतः कहा भी है कि- जिनेश्वरों ने मैथुन भाव को छोडकर अन्यत्र सर्वथा प्रतिषेध भी नहि कीया है, और अनुज्ञा भी नहि दी है, क्योंकि- मैथुन-भाव राग और द्वेष के बिना नहि होता है... तथा- जिस से सभी दोषों का निषेध हो तथा जिस से सभी कर्मों का विनाश हो, वह वह अनुष्ठान मोक्ष का उपाय है जैसे कि- रोगावस्था में शमन क्रियाएं... तथा जितने भी हेतु संसार के हैं, उतने हि वे हेतु मोक्ष के भी है... वे गणनातीत याने असंख्य हैं और दोनों परस्पर तुल्य है... अयं संधि से लेकर कालानुष्ठायी पर्यंत के इन सूत्रोंसे ग्यारह (11) पिंडैषणा निकली है...